kabar (qabar) par azan (ajan) dene ki sharai haisiyat|क़ब्र पर अजा़न देने की श-र-ई हैसियत
कब्र पर अज़ान क्यों दी जाती है
Azan e qabar (kabar) |
अक्सर देखने में आता है कब्रिस्तान में जनाजा के बाद यही सवालो जवाब मे मशगूल हो जाते हैं आज आप आला हजरत इमाम अहमद रज़ा ख़ान मुहद्दिसे बरेल्वी रहमुतुल्लाहि अलैह ने इस कि तफ़सील से बयान फरमायी है मुस्तनद हदीस और मोअतबर कुतुब वा अइम्मा का कौल जो कि मै इसे हिन्दी मे लिखने की सआदत हासिल कर रहा हूँ। मेरी गुजारिश उल्मा और दीनदार मोमिनीन से है की हमारी इस मेहनत को आवाम तक पहुँचाने मे मदद करें और लोगों के इल्म में इजाफा का सबब बनें
सवाल : क्या फरमाते हैं उल्मा ए दीन इस मसअले में कि दफन के समय कब्र पर जो अज़ान कही जाती है , वो शरअन जाइज़ है या नहीं ?
जवाब :- अज आला हजरत इमाम इमाम अहमद रजा़ खान मुहद्दिस बरेल्वी : बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम नहमदुहू - व - नुसल्ली - अला - रसूलिहिल - करीम
कुछ उल्मा ए दीन ने क़ब्र में मैय्यत को रखने के समय अज़ान देने को सुन्नत फरमाया है ।
जैसे की अल्लामा इब्ने हज़र मक्की और अल्लामा खैरुल मिल्लते वद्दीन रमली ने अपनी किताब " शरहे अबाब " और " हासिया बहरुर राइक " में जिक्र किया है ।
सभी सवालों में जिस अज़ान के हवाले में पूछा गया है उस का जाइज़ होना है ।
शरीअते मुतह्हरा में उस के मना होने पर हरगिज़ कोई दलील नहीं ।
और जिस काम से शरीअत ने मना न किया हो , वो काम कभी भी मना नहीं हो सकता ।
फ़कत यही एक दलील क़ब्र पर अज़ान देना जाइज़ होने के लिए काफ़ी है ।
जो लोग कब्र पर अज़ान देने को मना करते हैं , वह शरीअत से अपना दावा साबित करके दिखाओ।
यहां दलीलों के मैदान में आ कर मैं कई दलीलों से कब्र पर अज़ान के होने को शरीअते मुतहहरा से साबित कर सकता हूं ।
नीचे में चंद दलीलें आप लोगों के सामने हाजिर है
दलील
रिवाज है कि जब बन्दे को क़ब्र में रखा जाता है , और " मुनकर नकीर " सवाल करते है , तब मरदूद - " शैतान " यहांँ भी वहम डालता है और जवाब देने में बहकाता है ।
इमाम तिरमिजी मुहम्मद इब्ने अली अपनी किताब नवादेरुल वुसूल में इमामे अज़ल , हज़रत सुफ़ियान सूरी ( रहेमतुल्लाह अलैह ) से रिवायत करते हैं कि : जब मुर्दे से सवाल होता है कि
तेरा रब कौन है ?
तब शैतान आता है और अपने तरफ इशारा करता है कि मैं तेरा रब हूं !
इसी लिए हम को हुक्म दिया गया है कि मैय्यत जवाब में साबित कदम ( अडग ) रहे इस लिए दुआ करनी चाहिये ।
" इमाम तिर्मीज़ी फरमाते हैं कि : ऐसी हदीसें हिमायत करती हैं कि जिन हदीसों में जिक्र है कि हूजूर सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम मैय्यत को दफ़न करते समय दुआ करते थे कि " इलाही ! इसे शैतान से बचा ।
अगर जो क़ब्र में शैतान का दख़ल ( हस्तक्षेप ) नहीं है तो सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम ने ये दुआ क्यूं की ?
सहीह हदीसों से साबित है कि अज़ान से शैतान दफ़ा ( दूर ) होता है ।
हदीस : - सहीह बुख़ारी और मुस्लिम वगैरह ' में हज़रत अबू हुरैरा रदीअल्लाहो तआला अन्हु से रियायत है कि हुजूरे अकदस सल्लल्लाहो तआला अलैह वसल्लम इरशाद फ़रमाते हैं कि : “ जब मुअज्जीन अज़ान कहता है तब शैतान अपनी पीठ घूमा कर वायू ( हवा ) छोड़ता हुआ भागता है।
हदीस : - सहीह मुस्लिम शरीफ की हदीस में हज़रत ज़ाबिर रदीअल्लाहो अन्हु से रियायत है कि हुजूरे अकदस सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम इरशाद फरमाते हैं कि : “ जब अज़ान होती हैं तब शैतान छत्तीस ( 36 ) माईल ( मील ) तक दूर भाग जाता है ।
हदीस : - इमाम अबुल कासिम सुलैमान इब्ने अहमद तिब्रानी अपन मशहूर किताब " अवसते - मआजीम " में हज़रत अबू - हुरैरा रदीअल्लाहो अन्हु से रिवायत किया है कि हदीस में हुक्म दिया गया है कि : “ जब शैतान का खटका ( संदेह ) हो , तो फौरन अज़ान कहो , वह खटका दफ़ा ( नष्ट ) हो जायेगा । "
मैं ने अपनी किताब “ नसीमुल - सबा फी अन्नल अज़ाना - यहवेलुल - वबा " में इस हवाले की कई हदीसें जिक्र की हैं । जब यह साबित हो गया कि दफ़न के समय शैतान दखल देता है और अज़ान से शैतान भागता है ।
हदीस का हुक्म है कि शैतान को दफा करने ( भगाने ) के लिए अज़ान कहो ।
तो यह अज़ान के जो क़ब्र पर देने में आती है , वह हदीसों से अनुमानित कर के ही दी जाती है , बल्कि नबी के हुकम के मुताबिक है ।
यह अज़ान देने से मुसलमान भाई ( मैय्यत ) की मुनकर - नकीर के सवालों के जवाब देने में मदद (उम्दा सहायता) है और मुसलमान भाई की मदद करने की कुरआन और हदीसों में बहुत तारीफ की गई है ।
दलील
हदीस : - इमाम अहमद , तिब्रानी और बहेकी़ में हज़रत ज़ाबिर इब्ने अब्दुल्लाह रदीअल्लाहे अन्हु से रिवायत करते हैं कि : " जब हज़रत सअद इब्ने मआज़ रदीअल्लाहो अन्हु को दफ़न किया गया और क़ब्र बन्द कर दी गई , तब सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम बहुत समय तक " सुब्हानल्लाह - सुब्हानल्लाह " फरमाते रहे और सहाबा ए किराम भी हुजूर के साथ साथ सुब्हानल्लाह - सुब्हानल्लाह कहते रहे ।
इस के बाद हुजूरे पाक सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम
अल्लाहु अकबर - अल्लाहु अकबर " फरमाते रहे । और सहाबा ए किराम भी हुजूर के साथ साथ अल्लाहु अकबर - अल्लाहु अकबर कहते रहे । इस के बाद सहाबा ए किराम ने बारगाहे रिसालत में अर्ज़ की “ या रसूलल्लाह आप ने शुरू में " तशबीह " ( सुब्हानल्लाह ) और आखिर में “ तकबीर " ( अल्लाहु - अकबर ) फरमाया , इस की क्या वजह है ?
इरशाद फरमाया कि " यह नेक मर्द ( हज़रत सअद ) पर उनकी कब्र तंग हो गई थी , यहां तक के अल्लाह तआला ने उनसे यह तकलीफ दूर फरमा दी और कब्र को कुशादा ( चौडी ) फरमा दी ।
अल्लामा तिब्री “ शरहे मिश्कात शरीफ " में फरमाते हैं कि हदीस का मतलब यह है कि मैं और तुम सब एक साथ मिल कर " अल्लाहो अकबर | अल्लाहो अकबर और सुब्हानल्लाह । सुब्हानल्लाह ” कहते रहे ,
यहां तक के अल्लाह तआला ने इन को तंगी से नज़ात दी । इस हदीस से साबित हुआ के सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने खुद मैय्यत " पर आसानी हो इस मकसद से दफ़न के बाद क़ब्र पर " अल्लाहु - अकबर | अल्लाहु - अकबर । " विर्द फरमाते रहे ।
यही लफ्ज " अल्लाहु अकबर " अज़ान में छ : ( 6 ) मरतबा है साबित हुआ कि यह काम ( क़ब्र पर अज़ान ) सुन्नत में से है ।
हकीकत में अज़ान में इन लफ्जों से कोई नुकसान नहीं और यह काम सुन्नत के खिलाफ भी नहीं ,
बल्कि खास फायदा है ,
क्यूं कि अल्लाह की रहमत के आने के लिए “ ज़िक्रे - खुदा " करना था ।
यह तरीका अमीरुल मोअमेनीन हज़रत उमर फारुके आज़म , हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने ऊमर , हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद , हज़रत इमाम हसने मुजतबा वा दीगर सहाबा रदीअल्लाहु अन्हुम अजमइन के तरीके के मुताबिक़ है ।
फिकह की किताब , “ हिदायां ” में है कि : " जिक्र लफ्जो़ं में कुछ भी कम न करना चाहिये , क्यूंकि हुजूर सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम से इसी तरह जिक्र किया गया है , इस लिए उस में कोई लफ्ज कम न करना चाहिये , अलबत्ता अगर उसमें खास लफ्ज के साथ और जिक्र जोड़ना ( जाइज़ ) है ,
क्यूंकि उस में खुदा की तारीफ और बंदगी का जिक्र है । और खुदा की तारीफ और बंदगी जाहिर करने के लिए और लफ्जों का मिलाना नाजाइज ( निषेध ) नहीं लेकिन लायिके तारीफ है ।
मैं ने अपनी किताब सिफाऊल लजेन फी कवनित - तसाफोहे -बे- क़फफिल- यदैन में इन सब बातों का तफ्सील से जिक्र किया है |
दलील
सुन्नत , हदीस और फिकह से साबित है कि नजअ ( मृत्यू के समय ) की हालत में मरने वाले के पास ला इलाहा - इल्लल्लाह कहते रहना चाहिये , क्यूंकी यह सुनकर उसको कल्मा याद आ जाये ।
हदीस : - हदीसे मुतवातिर में अहमद , मुस्लिम , अबू दाऊद , नसाई तथा इब्ने माज़ा ने हज़रत अबू सईद खुदरी , हज़रत अबू हुरैरा और उम्मुल मोअमेनीन हज़रत आयशा ( रदीअल्लाहो अन्हुम ) से रिवायत करते हैं कि हूजूरे अकदस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम इरशाद फ़रमाते हैं कि : " तुम्हारे मुर्दो ( मृतकों ) को ला - इलाहा - इल्लल्लाह सिखलाओ जो शखस ( व्यक्ति ) सकरात ( मृत्यू का समय ) की हालत में है , वह मुर्दे की तरह है ।
उसको कल्मा सिखाने की जरुरत (आवश्यकता) इस लिए है कि खुदा के फज़लो - करम से उसका ख़ातमा ( जीवन का अंत ) कल्मे पर हो और वह शैतान के जाल में फंस कर भूलने और बहकने से महफूज़ (सुरक्षित) रहे । और जो शख्स दफ़न हो चुका है वह हकीकत (वास्तव) में मुर्दा है ।
उसको कल्मा सिखाने की जरुरत (आवश्यकता) इस लिए है कि खुदा के फज़लो - करम से उसे मुनकर - नकीर के सवालों का जवाब याद आ जाये और वह शैतान के बहकाने से महफूज़ (सुरक्षित) रहे ।
लिहाजा अज़ान में कल्मा " ला इलाहा - इल्लल्लाह " तीन मरतबा है , बल्कि तमाम अज़ान के लफ्ज मुनकर नकीर के सवालों के जवाब बताती है ।
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कब्र में तीन सवाल होते हैं ।
(1) मनरब्बुका - तेरा रब कौन है ?
(2) मा - दीनुका - तेरा दीन क्या है ?
(3) मा - कुन्ता - तकूलू फी - हाजिहिर्ररजुल - तूं इस मर्द मतलब नबी करीम सल्लल्लाहो अलैह के लिए क्या अकीदा रखता था ।
अब अज़ान के शुरूआत में : " अल्लाहु अकबर - अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर -'अल्लाहु अकबर "
अश्हदु - अल - ला - इलाहा इल्लल्लाह अश्हदु - अल - ला - इलाहा- इल्लल्लाह " और अज़ान के अंत में : " अल्लाहु अकबर - अल्लाहु अकबर " ला - इलाहा- इल्लल्लाह "यह लफ्ज आते हैं ।
ये तमाम लफ्ज मुनकर नकीर के पहले सवाल “ मनरब्बुका " ( तेरा रब कौन है ) का जवाब सिखायेंगे ।
यह लफ्ज सुनकर याद आयेगा के मेरा रब अल्लाह है । है अज़ान में यह लफ्ज भी है कि : " हय्या अलस्सलाह - हय्या अलस्सलाह हय्या अल्लफलाह - हय्या अल्लफलाह " ये लफ्ज मुनकर - नकीर के दूसरे सवाल “ मा दीनुका ( तेरा दीन ( धर्म ) क्या है ) का जवाब सिख़ायेंगे | यह लफ्ज सुनकर याद आयेगा कि मेरा दीन वो था , जिस में नमाज़ दीन का रुक्न और पाया था ।
" अस्सलातो - इमादुद - दीन " ( दीन का पाया (स्थंभ) है हदीस
अज़ान के बीच में है कि : " अश्हदु - अन्ना - मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह अश्हदु - अन्ना - मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह " ये लफ्ज मुनकर नकीर के तीसरे सवाल " मा कुन्ता तकूलू - फी - हाजिहिर - रजूलि " का जवाब सिखाोंगे ,
यह लफ्ज सुन कर याद आयेगा के मैं इन को अल्लाह का रसूल समझता था ।
तो साबित हुआ कि दफन के बाद अज़ान देना , इरशादे नब्वी का तामील है । जिस का ज़िक्र हुजूरे पाक सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम ने हदीसे मुतवातिर में किया है ।
यहां पर एक सवाल जहन में आ सकता है कि मुर्दे को सिखाने के लिए अगर अज़ान पढनें में आती है , तो मुर्दा किस तरह ( क्यूँ ) सुन सके ?
इस , सवाल का तफ्सीली जिक्र मेरी किताब " हयातुल - मवाल- फी बयाने - सिमाइल - अमवात ” में मौजूद है । इस किताब में मैं ने पच्चहत्तर ( 75) हदीस और तीन सौ पच्चहत्तर ( 375 ) बुजुर्गाने दीन के अकवाल से साबित किया है कि मुर्दे का सुनना , देखना , समझना यह सब हक ।
दलील
हदीस : - अबू - यअला , हज़रत अबू हुरैरा रदीअल्लाहो अन्हो से रिवायत करते हैं कि हुजूरे अकदस सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम फरमाते हैं कि : " ऊत्फेऊल - हरीका - बित्तकबीरि " तर्जुमा : - आग को तकबीर से बुझाओ "
हदीस : - इब्ने अदी , हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से और हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास ने इब्नु स्सुन्नी इब्ने असाकिर हज़रत अब्दुलल्लाह इब्ने अम्र इब्ने आस रदीअल्लाहो अन्हुम से रिवायत करते है कि हुजूर पुर नूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फरमाते हैं कि : " जब आग देखो तब ' अल्लाहु अकबर ' अतिशय कहते रहो , के वो आग को बुझा डालता है
अल्लामा मनावी , " तफ़सीर जामए सगीर " में फरमाते हैं कि तकबीर कहे यानी खुब ' अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर ' कहो , आग बुझ जायेगी ।
मुल्ला अली कारी अलैहे बारी , इस हदीस की शरह ( अनुसंधान ) में फरमाते हैं कि
हुजूरे अकदस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम क़ब्र पर बहुत समय तक अल्लाहु - अकबर कहते रहे वह हदीस और यह हदीस कि जिस में आग देख कर तकबीर कहने का जिक्र (वर्णन) है , यह दोनों हदीसों का हुक्म ' गज़बे इलाही ' यानी रब के जलाल को शांत करने के लिए है । इसी कारण से आग देख कर तकबीर ( अल्लाहु अकबर ) कहना मुस्तहब है ।
इस हवाले कि किताब ' वसीलतुन्नजात ' में " हरतुल फिकह " से हवाला से उल्लेख है कि : - कब्रस्तान वालों पर तकबीर कहने में हिकमत है कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का इरशाद है कि " इज़ा - रअयतुमुल - हरीका - फ - कब्बेरु " तर्जुमा :- आग लगे और तुम अपने हाथों से उसे बुझा न सको तो तकबीर कहो . क्यूंकि तकबीर की बरकत से आग बुझ जायेगी । तो कब्र का अज़ाब क्यूंकि ऐसा करने से आग
भी आग से होता है और उसे हम हमारे हाथों से बुझा नहीं सकते . इस लिए तकबीर कहनी चाहिये ,
कि तकबीर के कारण दोजख ( नर्क ) की आग से छुटकारा प्राप्त हो । यहाँ पर साबित हुआ कि मुसलमान की कब्र पर तकबीर ( अल्लाहु - अकबर - अल्लाहु - अकबर ) कहेना एक तरह की सुन्नत ही है ।
तो कब्र पर अज़ान देना भी सुन्नत के तरह ही है । अज़ान में अल्लाहु - अकबर के इलावा जो खास वह मना नहीं बल्कि फायदाकारक है
दलील
हदीस :- इब्ने माजा और बैहकी ने सईद इब्ने मुसय्यद से रिवायत किया कि : " मैं हजरत अब्दुल्लाह इब्ने ऊमर के संग एक जनाज़ा में गया । जब मैय्यत को कब्र में रखा गया तब हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर ने कहा कि “ बिस्मिल्लाहे - व - फी- सबिलिल्लाहे " और जब कब्र बन्द करने लगे तो दुआ की कि " इलाही ! इसे ( मृतक को ) शैतान से बचा और कब्र के अज़ाब से महफूज (सुरक्षित) रख ।
इस के बाद हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने ऊमर ने फरमाया कि यह मैं ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से सुना । इमाम तिर्मिज़ी , अम्र इब्ने मुर्रा ताबई से रिवायत करते हुये कि जब मय्यत को कब्र में रखा जाता तब सहाबा - ए - किराम और ताबइन यह दुआ करने को मुस्तहब समझते थे कि “ इलाही ! इसे शैतान से पनाह दे "
इब्ने अली शयबा के जो इमाम बुखारी और इमाम मुस्लिम के उस्ताद हैं , वह अपनी “ मुसन्नफ " में हज़रत ख़यसमा से रिवायत करते हैं कि सहाबा - ए - किराम ज़ब किसी मैय्यत को दफ़न करते तब ये दुआ करने को मुस्तहब समझते थे कि " अल्लाह के नाम से अल्लाह की राह में , रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मिल्लत पर , इलाही ! इसे ( मैय्यत को ) अज़ाबे क़ब्र, दोज़ख और मलऊन शैतान से पनाह दे " इन हवालों हदीसों से पुख्ता हुआ कि वह समय यानी दफ़नाके तुरंत बाद का समय शैतान की दखलगिरी का समय है और शैतान को दफा ( दूर ) करना सुन्नत है ।
इन दलील से साबित हो चुका है कि शैतान को दूर करने के लिए अज़ान देना अफजल है ।
तो साबित हुआ कि क़ब्र पर अज़ान देना शरीअत के मुताबिक है ।
दलील
हदीस : - अबू दाऊद , हाकिम तथा बैहकी ने अमीरुल मोअमेनीन हज़रत ऊरमान गनी रदीअल्लाहो अन्हो से रिवायत किया कि : " जब मुर्दे को दफ़न कर देते थे ये तब कब्र के पास खडे रहते और सहाबा - ए - किराम से फ़रमाते कि तुम्हारे भाई के लिए दुआ करो कि नकीरैन के जवाब देने में साबित कदम ( अडग ) रहे ,
क्युंकि अब उस से सवाल होगा । ” हदीस सईद इब्ने मन्सूर ने अपनी ' सूनन ' में हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने मरऊद रदीअल्लाहो अन्हो से रिवायत किया कि : " जब मुर्दे को दफ़न करने के बाद कब्र बराबर बन्द कर देने में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम कब्र के पास खडे हो कर दुआ मांगते के इलाही । हमारा ये साथी तेरा मेहमान हुआ है और दुनिया को अपनी पीठ के पीछे , छोड कर आया है ।
इलाही ! सवाल ( नकीरैन के सवाल ) के समय इस की ज़बान को दुरुस्त ( ठीक ) रख और कब्र में उस पर ऐसी बलाों ( आज़माइश ) मत डाल कि जिसे सहन करने की उस में ताकत न हो । " रिवायाते हदीसों दलीलों सेे साबित दफ़न के बाद दुआ करना सुन्नत है ।
इमाम मुहम्मद इब्ने अली हकीम तिर्मिज़ी दफ़न के बाद दुआ करने की हिकमत ( फ़ायदा ) के हवाले में फरमाते हैं कि : - " जनाज़ा की नमाज़ की जमाअत के साथ मुसलमानों का पढ़ना , उसके लिए यह नजरिया है कि एक लश्कर ( सेना ) बादशाह के द्वार पर भलामण ओर क्षमा भी विनंती के लिए हाज़िर हुआ है । और कब्र के पास खड़े होकर मैयत के लिए दुआ करना ऐसा है कि अब वह सेना मैय्यत की सहायता कर रही है ।
क्युंकि वह समय है । कब्र के अन्जाने मुकाम में हमेशा होना और तब हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल
नकीरैन के सवालों के जवाब देने का मौका है ।
( हवाला : - " शरहुस्सुदूर " , लेखक :- इमाम जलालुद्दीन सुयूती )
अब मैं नहीं सोच सकता कि दुनिया में कोई ऐसी भी इंसान हो , जो दुआ का मुस्तहब होना कुबूल न करें ।
इमाम आजेरी फ़रमाते है कि दफ़न के बाद थोड़ी देर के लिए खड़ा रहना और मैय्यत के लिए दुआ करना मुस्तहब है इसी तरह का जिक्र इस्लाम की मशहूर और मोअतबर कितााब जोहरा , नय्येरा , दुरै मुख़तार तथा फ़तावा आलमगिरी में मौजूद है ।
हैरानी तो इस बात पर है कि कब्र पर अज़ान देने की मनाई करने वाले वर्ग के इमामे पानी ( दूसरे इमाम ) यानी मोल्वी इस्हाक दहेल्बी ने अपनी किताब “ मिअता मसाइल " में दफ़न के बाद कब्र के पास खडे रह कर दुआ मांगने के हवाले में फतहुल कदीर , बेहरुरॉइक , नेहरुल फाइक और फ़तावा आलमगिरी जैसी किताबों से साबित किया है कि " कब्र के पास खढे रहकर दुआ मांगना सुन्नत से साबित है । " बल्कि . वह मोल्वी साहब इत्ना न समझ सके कि अज़ान भी दुआ है , ज़िक्र है
मुल्ला अली कारी अलैहे रहमतुल बारी “ मिरकात शरहे , मिरकात " में फरमाते है कि : - " कुल्लु - दुआ - ज़िकरुन व - कुल्लु - जिकरिन - दुआ ”
तर्जुमा :- हर दुआ ज़िक्र है और हर ज़िक्र दुआ है ।
हदीस : - हज़रत जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह रहीअल्लाहु अन्हो से रिवायत है कि : - “ अफ़ज़लुद - दुआओ - अल - हम्हो - लिल्लाह "
तर्जुमा :- सब दुआओं में अफ़ज़ल ( उत्तम ) दुआ अलहम्दु लिल्लाह है । ( तिर्मिज़ी )
हदीस :- सहीहैन में है कि महफिल में लोगों ने बड़े बड़ें आवाज़ से ' अल्लाहु - अकबर , अल्लाहु - अकबर ' कहना शुरु किया । नबी - ए करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया , लोगों । अपनी जानों बल्कि बेहतर दुआ पर नरमी करो ।
तुम किसी बहरे या गैर हाज़िर से दुआ नहीं करते लेकिन सुनने वाले और देखने वाले ( रब ) से दुआ करते हो । देखो ! दोनों हदीसों में हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने “ अल हम्दु लिल्लाह " और " अल्लाहु अकबर " ये दोनों कल्मों ( शब्दों ) को ' दुआ ' कहा है । तो अब अज़ान के दुआ तथा सुन्नत होने में क्या शंका रही ?
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दलील
ये तो साबित हो गया कि दफन के बाद मैय्यत के लिए दुआ मांगना सुन्नत है |
ओलमा फरमाते हैं कि दुआ मांगने के तरीके में यह भी है कि दुआ से पहले कोई नेक अमल कर लेना चाहिये ।
इमाम शम्सुद्दीन मुहम्मद इब्ने बज़रीन की किताब “ हिरने हसीन " में है कि दुआ मांगने से पहले कोई नेक अमल करना यह दुआ के आदाब में से है
अल्लामा मुल्ला अली कारी अपनी किताब " हिरज़े समीन " में फरमाते कि इस हदीस को अबू दाऊद , तिर्मिज़ी , नसाई , इब्ने माजा तथा इब्ने हिब्बान ने हज़रत अबुबकर सिद्दीक रदिअल्लाहु अन्हु से रिवायत करना साबित है ?
इस बात में शक नहीं कि अज़ान ' नेक अमल ' है , दफ़न के बाद दुआ मांगी जाती है और दुआ के मांगने से पहले ' नेक अमल ' ( अज़ान ) करना सुन्नत के मुताबिक है ।
दलील
हदीस : - अबू दाऊद , इब्ने हिब्बान और हाकिम ने हज़रत इले सअदस्साओदी रदीअल्लाहो अन्हो से रिवायत किया कि : “ रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे , वसल्लम ने फरमाया हय कि “ बिनताने - ला - तूरददाने - अद - दुआओ - इन्दल निदाओ - य इन्दल - बासे ”
तर्जुमा :- दो दुआयें रद्द नहीं होती , एक अज़ान के समय और दूसरी जिहाद में , के जब काफ़िरों से जंग ( युद्ध ) हो रही हो ।
हदीस : - अबू यअला , हाकिम , अबू दाऊद ने हज़रत अनस इने मालिक रदीअल्लाहौ अन्हुम से रिवायत किया कि
" हुजूरे अकदस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फ़रमाते हैं " इज़ा नादल - मुनादी - फ़ोतेहत अब्वाबस - समाओ - व उस्तोजीबद - दुआ '
तर्जुमा :- जब अज़ान देने वाला अज़ान देता है , तब आसमान के दरवाज़े खोल दिये जाते हैं और दुआ क़बूल होती है ।
इन दोनों हदीसों से पुख्ता हुआ कि अज़ान देने से दुआ क़बूल होती है दफ़न के बाद अल्लाह से दुआ मांगनी होती है , तो दुआ क़बूल हो ऐसा काम करना ( यानी के अज़ान देना ) बहुत ही अच्छा काम है ।
दलील
हदीस : - इमाम अहमद तिब्रानी , अबू दाऊद , नसाई इब्ने माजा , खुजैमा , इब्ने हिब्बान वगैरह ने हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर , अबू हुरैरा , वरा इब्ने आज़िव , अबी ऊमामा और अनस इब्ने मालिक कुल पांच ( 5 ) सनदों से रिवायत किया कि : “ रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फ़रमाते हैं कि " जहां तक अज़ान की आवाज़ जाती है उतने अंतर ( चोडाई ) जितनी मगफिरत मोअज़्ज़ीन के लिए आती है और जो भी सूखी ( खुश्क ) और गीली ( तर ) वस्तु तक अज़ान की आवाज पहुँचती है , वो तमाम वस्तुएं उस अज़ान देने वाले के लिए मगफिरत मांगती हैं ।
हदीस से साबित हुआ कि जिस शख्स की अज़ान देने के कारण मगफिरत कर देने की बशारत आई हो , उस शख्स की दुआ फौरन कुबूल होती है । और हदीसों में जिक्र है कि मगफूरों से दुआ करानी चाहिये
हदीस : - इमाम अहमद ' मुस्तनद ' में हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर रदीअल्लाहु तआला अन्हुम से रिवायत करते हैं कि : " हुजूरे अकदस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम इरशाद फ़रमाते है कि " जब तू हाजी से मिल तो उसे सलाम कर और उस से हाथ मिला और वो हाज़ी अपने घर में दाखिल हो , इस के पहेले उस से अपने लिए मगफिरत की दुआ करा , क्युंकि वो बख्श दिया गया है ।
" इसी तरह दफ़न करने के बाद किसी नेक बंदे से अज़ान दिलानी चाहिये , ताकि हदीस के हुक्म के मुताबिक ( इन्शाअल्लाह ) उस अज़ान कहने वाले की मग़फिरत होगी , इस के बाद वो अज़ान कहने वाला मय्यैत के लिए दुआ करे , क्युंकि मगफूर ( बख़शा हुआ ) की दुआ ज़्यादा क़बूल होती है । तो
इस तरह करने में कोन सा गुनाह है ?
दलील
अज़ान ज़िक्रे इलाही है और हर ज़िक्रे इलाही अज़ाब को रोकता है ।
हदीस : - इमाम अहमद ने मआज़ इब्ने जबल से और इब्ने अबीददुनिया तथा बैहक़ी ने इब्ने उमर रदीअल्लाहो तआला अन्हुम से रिवायत करते हैं कि : " हुजूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम इर्शाद फ़रमाते हैं कि " अल्लाह के ज़िक्र से बढ़ कर कोई भी चीज़ अज़ाब इलाही से बचाने वाली नहीं ।
हदीस : - क़बीर में हज़रत माअ कल इब्ने यसार रदीअल्लाहो तआला अन्हो की हदीस में बयान किया गया है कि : " हुजूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फ़रमाते हैं कि " जिस जग़ह ( स्थान ) पर अज़ान कही जाती है , उस जग़ह को अल्लाह तआला उस दिन के लिए अज़ाब से महफूज (सुरक्षित) रखता है । तो साबित हुआ कि अपने मोमिन भाई के लिए ऐसा अमल ( कार्य ) करना के जो अमल उस मोमिन भाई को अज़ाब से बचाता हो , तो वो अमल अल्लाह और रसूल को बेहद पसंद है ।
मुल्ला अली कारी अलैहे रहमतुल बारी , अपनी मशहूर किताब “ शरहे - अयनुल - इल्म " में कब्र के पास कुरआन पढ़ने , तस्बीह पढने दुआओं रहमत व मगफ़ेरत करने की वसीय्यत कर के फ़रमाते हैं कि “ फ़ इन्नल अज़कारा - कुल्लुहा - नाफ़ेअतुन फ़ी - तिलकद - दार " यानी जितने ज़िक्र हैं वो मैय्यत को क़ब्र में फायदा पहोंचाते हैं ।
इमाम बदरुद्दीन महमूद अपनी किताब " अयनी शरहे सहीह बुख़ारी में क़ब्र के पास हदीस बयान करने के हवाले में फ़रमाते हैं कि मैय्यत के लिए फायदा है कि मुसलमान उस की क़ब्र के पास जमा हों और कुरआन शरीफ़ की तिलावत और ज़िक्र करें , उस से मैय्यत को फ़ायदा ( सवाब ) होता है । तो क़ब्र पर अज़ान देने की मना करने वाले इस पर सोचें कि
क़ब्र पर अज़ान देना क्या ज़िक्र नही ?
या फिर मैय्यत को सवाब मिले ये उन्हें अच्छा नहीं लगता ।
दलील
“ अज़ान " ज़िक्रे मुस्तफा है और मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का ज़िक्र करने से रहमत नाज़िल होती है । क्यूंकि हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का ज़िक्र हकीकत में ' ज़िक्रे - खुदा ' है |
इमाम इब्ने अत्ता और इमाम क़ाजी अयाज़ वगैरह जलीलुलकद्र इमामों ने कुरआन शरीफ़ की आयत “ व - रफ़अना - लका ज़िकरक " की तफ़सीर में फरमाते हैं कि : “ ए महेबूब ! ( सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ) मैं ने आपको अपनी जिक्र में से एक जिक्र बनाया है और जो आप का ज़िक्र करता है ,
वो हक़ीक़त में मेरा ही ज़िक्र करता है । और , ज़िक्रे इलाही की वजह से रहमत नाज़िल होती है , क्यूंकि ज़िक्र करनेवालों के बारे में
सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फ़रमाते हैं कि : फरिश्ते उस ज़िक्र करनेवाले को घेर लेते हैं और खुदा की रहेमत उन को ढांक ( छूपा ) लेती है , और उन पर चैन और सुकून उतारने में आती है . । ( मुस्लिम , तिर्मिज़ी )
हदीस में . खुदा के सारे नेक बंदे के ज़िक्र के पास खुदा की रहेमत नाज़िल होती है ।
इमाम सुफ़यान इब्ने ऊययना रहमतुल्लाहे तआला अलैहे फ़रमाते हैं कि “ इन्दा ज़िकरिस्सालेहीना तनज़्ज़लूल रहमतो
तर्जुमा " नेक लोगों का ज़िक्र करने से खुदा की रहमत नाज़िल होती है । सारे कौल को अबू जाफ़र इब्ने हमदान ने हज़रत अबू अम्र इब्ने नजीद से जिक्र कर के फ़रमाया कि " फ़ रसूलुल्लाहे सल्लल्लाहो - अलैहे - वसल्लमा रासुस - सालेहीना "
तर्जुमा:- रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तमाम सालेहीन ( नेक लोगों ) के सरदार हैं ।
लिहाजा
जहां कहीं भी अज़ान कही जायेगी वहां ' रहमते इलाही ' का नुजूल होगा और मुसलमान भाई के लिए जैसा काम करना कि जिस के वजह रहमत नाज़िल हो , जैसा काम ( कब्र पर अज़ान ) करने की शरीअत में मनाई करने में नहीं आई फिर ऐसा काम पसंद किया गया
दलील
ये हक़ीक़त भी है और हदीसों में भी आया है कि मुर्दे को उस तंग और अंधेरा मकान ( क़ब्र ) में सरवत घभराहट होती है डर भी लगता है |
अज़ान देने से घभराहट और डर दूर होता है और शांति प्राप्त होती हैं , क्युंकि अज़ान ' ज़िक्रे खुदा है । अल्लाह तबारक व तआला फ़रमाता है कि : " अला - बे - ज़िकरिल्लाहे - तत्मइन्नुल - कुलूब "
तर्जुमा सुनलो , अल्लाह का ज़िक्र करने से दिलों को शांति मिलती है ।
अबू नईम और इब्ने असाकिर ने हज़रत अबू हुरैरा रदीअल्लाहो तआला अन्हो से रिवायत किया कि सरवरे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फ़रमाते हैं कि : " जब हज़रत आदम अलैहिस्सलाम का जन्नत से हिन्दुस्तान की धरती पर आमद हुआ और उन्हें सरवत ग़भराहट हुई , तो हज़रत जिब्रइल अलैहिस्सलाम ने आकर अजान दी । " तो जब हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की घभराहट दूर करने के लिए खुद हज़रत जिब्रइल ने अज़ान दी , तो अगर हम क़ब्र में बेचैनी का अनुभव करने वाले हमारे मुर्दे की बेचैनी और घभराहट को दूर करने के नेक इरादे से अज़ान देते हैं,
इस में कौन सी बुराई है ?
बल्कि . औरो निराहाय मुर्दो की मदद करने को अल्लाह तआला बहूत पसंद फ़रमाता है ।
हदीस : - इमाम मुस्लिम , अबू दाऊद , तिर्मिज़ी , इब्ने माजा हाकिम ने हज़रत अबू हुरैरा ( रदीअल्लाहो तआला अन्हुम ) से रिवायत करते है कि हुजूरे अकदस सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि : “ अल्लाह तआला बन्दे की मदद में है , जब तक बन्दा अपने मुसलमान भाई की मदद में है ।
हदीस : - अबू दाऊद ने हज़रत इब्ने उमर रदीअल्लाहो तआला अन्हुम से रिवायत किया कि हुजूर अकदस सल्लल्लाहो अलेहे वसल्लम इर्शाद फ़रमाते हैं कि : " जो शखस अपने मुसलमान भाई की हाजत पुरी करने में रहता है , तो अल्लाह तआला उसकी हाजत पूरी करता है और जो किसी मुसलमान की तकलीफ़ दूर करता है तो उस के बदले में अल्लाह तआला कयामत के दिन की मुसीबतों में से उसका मुसीबत दूर फ़रमायेगा ।
दलील
मुस्नदुल फ़िरदौस में हज़रत अमीरुल मोमिनीन सय्यदना अली मुर्तुज़ा रदीअल्लाहो तआला अन्हो से रिवायत करते हैं कि : " एक मरतबा हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मुझे गमगीन देखा । आप ने मुझ से इरशाद फ़रमाया कि ए अली । मैं आपको गमगीन देख रहा हूं । आप अपने घर वालों में से किसी को कहो कि वों तुम्हारे कान में अज़ान कहें,
क्युकि अज़ान गमग़ीनी को दूर करती है ।
मिश्कात ” में अल्लामा इब्ने हजर से रिवायत करते हैं कि हज़रत अली और हज़रत अली तक के जितने भी इस हदीस के रावी ( रावी) हैं , यो सब फ़रमाते हैं कि “ फ़ - जरबतोहू - फ - वजदत्तोहु - क - जालेका "
तर्जुमा मैं ने इस को आजमा कर देखा तो उसी मुताबिक अनुभव किया यानी कि गमगीनी के समय अज़ान देने से गमगीनी दूर हो गई । " हदीसों से साबित है कि उस वक्त यानी की दफ़न के तुरंत बाद
मैय्यत गमगीनी और परेशानी की हालत में होता हैं , तो मैय्यत की गमगीनी और परेशानी दूर करने के लिए अगर अज़ान देने में आओ तो क्या शरीअत में इस की मनाही हैं ? नहीं बल्कि फ़र्ज़ अमलों के बाद मुसलमान भाई का दिल खुश करने जैसा कोई अमल खुदा के नज़दीक अच्छा नहीं ।
हदीस : - तिब्रानी ने मोअज्जम कबीर और मोअज्जम अवसत में हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रदीअल्लाहो तआला अन्हुमा से रिवायत करते हैं कि : " फ़र्ज़ों के बाद के अमलों में मुसलमान का दिल खुश करना अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा महबूब है ।
हदीस : - इमाम इब्नुल इमाम , सय्यैदना हसने मुजतबा रदीअल्लाहो तआला अन्हो से रिवायत है कि सरकारे दो जहाँ सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम इर्शाद फरमाते हैं कि : " तुम्हारे मुसलमान भाई का दिल खुश करने से मगफिरत की बशारत होती है ।
kabar (qabar) par azan (ajan) dene ki sharai haisiyat|क़ब्र पर अजा़न देने की श-र-ई हैसियत
दलील
जन्नती कौन JANNATI KAUN ? अल्लाह तबारक व तआला कुरआन शरीफ़ में फरमाता है : " या अय्युहल - लज़ीना - आमनूज़ - कुरुल्लाहा ज़िकरन कषीरा
तर्जुमा :- ऐ ईमान वालो अल्लाह का ज़िक्र खुब करो । हदीस : - अहमद , अबू यअला , इब्ने हिब्बान , हाकिम और बैहकी ने हज़रत अबू सईद खुदरी रहीअल्लाहो तआला अन्हो से रिवायत किया कि : " अकषरु- ज़िक्रल्लाहे - हत्ता - यकूलू - मजनु नल्लाहे " यानी अल्लाह का जिक्र इत्ना ज्यादा करो के लोग तुम्हे अल्लाह का मजनू कहें ।
हदीस : - कबीर में तिब्रानी ने हज़रत मआज़ इब्ने जबल रदीअल्लाहो अन्हो से रिवायत किया कि नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फ़रमाते हैं कि " ऊजकुरुल्लाह इन्दा कुल्ले - हज़रिंपप शज़रिन " यानी हर पथ्थर और पेढ के पास अल्लाह का ज़िक्र करो ।
हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रदीअल्लाहो तआला अन्हो फरमाते हैं कि अल्लाह तआला ने भी फ़राइज़ मुकर्रर किये हैं ,
उन तमाम की हद है और मजबूरी की हालत में बन्दों को माफी भी दी है , लेकिन जिक्र के लिए अल्लाह ने कोइ हद नही मुकर्रर की के वो पूरा हो और किसी को भी उसका छोडने की परवानगी नहीं दी . अलबत्ता , उन लोगों को ही फ़कत माफ़ी दी गई है कि जिन की अकलें ( बुद्धि ) सलामत न हों ।
अल्लाह तआला ने बन्दे को आदेश दिया है कि हर हाल में उसका ज़िक्र करे ।
हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास के शगिर्द हज़रत इमाम मुजाहिद फ़रमाते हैं कि “ अज़ - ज़िकरुल - कसीरो अन - ला - युतनाही अबदन "
यानी " ज़िक्रे कसीर वो है जो कभी ख़त्म न हो " इन सभी हदीस से साबित हुआ कि हर जगह अल्लाह का जिक्र करना उमदा और जब तक शरीअत में उसके करने की मनाही न आई हो ,
वहां तक उसके करने से हरगिज़ मना नहीं कर सकते ।
अज़ान भी “ ज़िक्रे - खुदा " है और ज़िक्रे खुदा से मना करने का कारण क्या है ?
बल्कि यहां तक हुकम है कि हर पत्थर ओर पेड़ ( वृक्ष ) के पास खुदा का ज़िक्र करो तो क्या मुसलमान मोमिन की क़ब्र के पथ्थर इस हुकम से बंद कर दिये गए हैं ?
दफ़न के बाद खुदा का जिक्र करना हदीसों से साबित है , और अइम्मा ए - दीन के कौल के हिसाब से मुस्तहब है ।
इमामे अजल , अबू सुलैमान ख़त्तावी क़ब्र के पास खड़े हो कर , " तलकीन " करने के हवाले में फ़रमाते हैं कि " हमें इस के बारे में कोई मशहूर हदीस नहीं मिली लेकिन ऐसा करने में कोई हरज ( वाध ) नहीं है ,
क्युंकि इस में खुदा का ज़िक्र करना है , जो बहुत ही उमदा बात है ।
दलील
हज़रत इमामे अजल , अबू जकरिया नववी , शारेह सहीह मुस्लिम किताबूल - अज़कार में फ़रमाते हैं कि : " मुस्तहब है कि दफ़न करने के बाद क़ब्र के पास
इतनी देर बैठना कि उस समय दरमियान एक ऊँट जिबह ( हलाल ) कर के उसका गोश्त ( मांस ) वितरण ( तक़सीम ) कर दिया जाये ।
और उस समय दरमियान क़ब्र के पास पढ़ने वाले तिलावते कुरआने पाक , मैय्यत के लिए दुआ , वअज़ , नसीहत , नेक बंदों के ज़िक्र और हिदायत में मशगूल रहें ।
शैख मोहक़किक़ मौलाना अब्दुल हक़ मोहद्दिसे दहेल्वी ( कुद्देसा सिर्रहु ) अपनी किताब " अशिअतुल लम्आत शरहे , मिश्कात " में अमीरुल मोअमेनीन हज़रत उसमान गनी रदीअल्लाहो अन्हो के जरिए रिवायत की गई हदीस ( जो पेश की गई है ) के हवाले में फ़रमाते हैं कि यकी़न (विश्वास) के साथ मैं ने कई आलिमों से सुना है कि " दफ़न करने के बाद क़ब्र के पास कोई फ़िकही - मसअला बयान करना मुस्तहब है ।
" अश्अतुल लम्आत ” शरहे मिश्कात ( फ़ारसी ) में शाह अब्दुल हक़ मोहद्दिसे दहेल्वी उसकी वजह ये बताते हैं कि “ बाइसे नुजूले - रहेमत जन्नत , कन अरत " यानी " इस के वजह से रहमत नाज़िल होती है ।
वो फ़रमाते हैं कि " फ़र्ज़ मसअला बयान करना मुनासिब है आगे फ़रमाते हैं कि " अगर कुरआन शरीफ का ख़त्म करने में आओ तो ज़्यादा बेहतर है ' इन दलील से साबित हुआ कि ओलमा ए किराम ने क़ब्र के पास नेक बंदों का ज़िक्र , सालेहीन का जिक्र , कुरआन शरीफ़ का खत्म , फ़िकह के मसाइल और फ़राइज़ के जिक्र करने को मुस्तहब कहा गया है ।
इस की वजह ( कारण ) सिर्फ़ इत्नी है कि मैय्यत को रहमत की हाजत होती है और सारे कामों के करने से रहमत नाज़िल होती है | हदीसों में है कि ' अज़ान देने से रहमत नाजिल होती है । तो जब जिक्र का करना मुस्तहब है , तो क़ब्र के पास अज़ान देना किस वजह से मुस्तहब नहीं ?
अल्हम्दोलिल्लाह । यहां तक कुल पंदरह ( १५ ) दलीले पूरी हुयी और क़ब्र पर अज़ान देने का सुबूत मिला
अचछों की नसीहतें
नसीहत नं . 1 उपर दी गई दलीलें पढ़ने के बाद एक फरीक खुदा की आला नेअमत के बारे में सोचें कि क़ब्र पर अज़ान देने से मैय्यत को और अज़ान देने वाले को कितने फ़ायदे होते हैं ।
क़ब्र पर अज़ान देने से मैयत को सात ( 7) फ़ायदे होते हैं
(1 ) अल्लाह की मदद से शैतान के फ़रैब से पनाह मिलेगी (2 ) ' तकबीर ' ( अल्लाहु अकबर ) कहने की बरकत से अज़ाब से अमन मिलेगा ।
(3) मुनकर - नकीर के सवालों के जवाब याद आ जायेंगे । (4) ' अज़ान ' ( ज़िक्र ) के कारण क़ब्र के अज़ाब से नजात मिलेगी ।
(5 ) हुजूरे अकदस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़िक्रे पाक की बरकत से रहेमत नाज़िल होगी ।
(6 ) अज़ान की बरकत से क़ब्र की घबराहट दूर होगी ।
(7) अज़ान की बरकत से ग़म ( रंज ) दूर होगा और खुशी और सुकून मिलेगी ।
जन्नती कौन JANNATI KAUN ?
क़ब्र पर अज़ान देनेवाले को कुल पंदरह , ( 15 ) फ़ायदे होते हैं ।
अज़ान देनेवाले को कुल पंदरह , ( 15) फ़ायदे इस तरह होते है ,
सात ( 7) फ़ायदे तो उपर ऊपर लिखे गये हैं ।
जो मैयत को होते है और वही सात फ़ायदे अज़ान देनेवाले और ज़िक्र करने वाले जिन्दा लोगों को भी हासिल होते हैं । खास में अज़ान देने वालों को आठ ( 8) खास फ़ायदे मिलते हैं ,
यानी अज़ान देनेवालों को कुल 15( पंदरह ) फ़ायदे होते हैं। अज़ान देनेवालो को जो खाऐस आठ ( 8 ) फ़ायदे होते हैं , वो ये हैं
(1 ) मैयत के फ़ायदे के लिए शैतान को दूर करने की तरकीब
(2) मैयत को जवाब देने में आसानी हो , जैसी कोशिश कर के सुन्नत की पाबंदी पैरवी की , जिसका सवाव मिलेगा ।
(3 ) कब्र के पास दुआ की । जिस की वजह से भी सुन्नत पर अमल हुआ ।
(4 ) मय्यत को फायदा पहोंचाने की निय्यत से क़ब्र के पास ' तकबीरें ' ( अल्लाहु - अकबर ) कहीं । इससे भी सुन्नत पर अमल हुवा ।
(6)' अज़ान ' दे कर खुदा का जिक्र करने का सवाब मिला । मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का जिक्र किया । जिस की बरकत से रहमतें मिलेगी ।
(7 ) दुआ करने के फ़जाइल हासिल हुआ और दुआ करना भी इबादत का खास का हिस्सा है । अज़ान देने के फ़ायदे मिले ।
मिसाल के तौरे पर जहां तक अज़ान की आवाज़ पहोंचेगी वहां तक मगफिरत और सारे खुश्क ( सुखी ) और तर ( भीगी ) चीजें उस के लिए मगफिरत की दुआ करेंगी । दिल को सुकून और चैन प्राप्त होगा ।
kabar (qabar) par azan (ajan) dene ki sharai haisiyat|क़ब्र पर अजा़न देने की श-र-ई हैसियत
अज़ान में कित्ने लफ्ज़ हैं ?
बात ये है कि अज़ान में कुल सात ( 7 ) कल्में ( जुमले ) हैं ।
और वो ये है
(1 ) अल्लाहु अकबर
(2) अश्हदु - अल - ला - इलाहा - इल्लल्लाह ...
(3) अश्हदु - अन्ना - मुहम्मद - रसूलुल्लाह
(4 ) हय्या अलस्सलात
(5 ) हय्या अलल फ़लाह
(6 ) अल्लाहो अकबर
(7 ) ला इलाहा इल्लल्लाह कुल .7 लेकिन . ऊपर सात जुमलें अज़ान में इस्लामी कानून के मुताबिक इस तरह कहे जाते हैं कि उसका टोटल पन्द्रह ( 15 ) होता है । जैसे कि : (1) अल्लाहो अकवर 4 मरतबा
(2) अश्हदु - अल - ला - इलाहा - इल्लल्लाह 2 मरतबा
(3 ) अश्हदु - अन्ना - मुहम्मद - रसूलुल्लाह। 2 मरतबा
(4 ) हय्या अलस्सलात। 2 मरतबा
(5 ) हय्या अलल फ़लाह। 2 मरतबा
(6 ) अल्लाहु अकबर। 2 मरतबा
(7 ) ला इलाहा इल्लल्लाह 1 मरतबा कुल ........ 15 मरतबा तो साबित हुआ कि अज़ान देने से मुर्दे को सात ( 7 ) और अज़ान देने वाले को पंदरह ( 15 ) फ़ायदे होते हैं ,
वो फ़ायदे हक़ीक़त में ऊपर बयान किये गए सात ( 7 ) और पंदरह ( 15 ) की बरकत है ।
लेकिन , सोचने की बात ये है कि क़ब्र पर अज़ान देने की मना करने वालों को मैयत और अज़ान देने वाले को इन सवाब के फ़ायदों से और बरकतों से महरुम रखने में कौन सा फ़ायदा नज़र आता है ?
हदीस में तो ताजदारे मदीना सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम इरशाद फ़रमाते हैं कि " तुम में से जो कोइ भी अपने मुसलमान भाई को फ़ायदा पहुंचाने की ताक़त रखता हो , उसके लिए ज़रूरी है कि वो अपने मुसलमान भाई को फायदा पहुँचाये ।
इन अहदीस में मुसलमान भाई को फायदा पहोंचाने की पूरी इज़ाज़त होने के बावजूद भी क़ब्र पर अज़ान देने की मनाही करने वाले किस बिना पर मना कर रहे हैं , वो तो खुदा ही जाने ।
नसीहत नं . 2
हदीस : - हज़रत अनस और हज़रत सहल इब्ने सअद रदीअल्लाहो अन्हुमा से रिवायत करते हैं कि हुजूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वराल्लम फ़रमाते हैं कि :
“ निय्यतुल - मोअमिनि - खयरूम - मिन - अमलिहि "
तर्जुमा " मुसलमान की निय्यत उसके अमल से बहेतर है । " ( बैहक़ी और तिब्रानी )
जो शख़स “ निय्यत का इल्म " जानता है , वो सिर्फ एक काम करके अनेक नैकी हासिल कर सकता है | मिसाल के तौर पर कोई शख्स नमाज़ पढने के लिए मस्जिद की तरफ़ चला और उसने सिर्फ़ निय्यत की , तो उसका चलना बेशक़ बेहतर है । हर कदम पर उसे एक नकी मिलेगी और एक एक गुनाह माफ होगा ,
लेकिन जो शसस ' इल्मे निय्यत ' जानता है , वो इस एक नेकी को कई नेकियों में पल्टा सकता है ।
यानी जो शख़स नमाज़ के लिए जाओ , तो वो नमाज़ की निय्यत के साथ साथ नीचे लिखे गले कामों की भी निय्यत कर ले :
(1 ) असल मकसद नमाज़ के लिए जा रहा हूं ।
(2 ) खुदा के घर ( मस्जिद ) की ज़ियारत करूंगा ।
(3 ) इस्लाम की निशानी जाहेर करूंगा ।
(4 ) अल्लाह की तरफ़ बुलाने वाले ( मोअज़्ज़ीन ) का अमली स्वीकार करूंगा ।
(5 ) मस्जिद में से कुडा - कचरा दूर करूंगा ।
(6 ) एतफ़ाक करने जाता हूं ।
(7 ) फ़रमाने इलाही पर अमल करने जा रहा हूं ।
(8) वहां जो आलिम मिलेगा उससे मसाइल पुछूगा और दीन की जानकारी हासिल करूँगा ?
(9 ) जाहिलों को मसाइल बताऊँगा और दीन की तालीम दूंगा |
(10 ) जो शख़स इल्म में मेरा बरोबरी का होगा उसके साथ इल्म की चर्चा करूंगा ।
(11 ) आलिमों की ज़ियारत करूंगा ।
(12 ) नैक मुसलमानों का दीदार करूंगा ।
(13 ) दोस्तों से मुलाक़ात करूंगा ।
(14 ) मुसलमानों से मिलाप करूंगा ।
(15 ) जो रिश्तेदार मिलेगा उसके साथ हस्ते चेहरे से मिलूंगा ।
(16 ) अहले इस्लाम को सलाम करूंगा ।
(17 ) मुसलमानों से मुसाफ़ा करूंगा ।
(18 ) जो मुझ को सलाम करेगा उसका जवाब दूंँगा ।
(19 ) जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ने में मुसलमानों की बरकतें हासिल करूंगा ।
(20 ) मस्जिद में दाखिल होते समय और
(21 ) मस्जिद से निकलने के समय हुजूरे अकदस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर सलाम अर्ज़ करूंगा कि : " बिस्मिल्लाहि - अल - हम्दोलिल्लाहि - वस्सलामु - अला रसूलिल्लाहे "
(22 ) मस्जिद में दखिल होते समय और
(23 ) मस्जिद से निकलने के समय हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तथा अज़वाजे मुतहहेरात पर दरूद भेजूंँगा कि : " अल्लाहुम्मा - सल्ले - अला - सय्यदिना - मुहम्मदिवँ - व - अला - आलि - सय्यदिना - मुहम्मदिवँ - व - अला - अज़वाजी - सय्यदिना मुहम्मद "
(24 ) बीमार की मिज़ाज पुर्सी करूंगा ।
(25 ) अग़र कोई ग़मी वाला मिलेगा तो ताज़ीयत करूंगा।
(26 ) जिस मुसलमान को छींक आयेगी और वो अलहम्दोलिल्लाह ' कहेगा तो उसके जवाब में " यरहमुकल्लाह ' कहूंगा ।
(27 ) अच्छी और नेक बातों का हुकम करुंगा ।
(28 ) बुरी बातों से रोकूगा ।
(29 ) नमाज़ी लोगों को वुजू का पानी दूंगा ।
(30 ) जो खुद मोअज्ज़िन हो या मस्जिद में कोइ मोअज़्ज़िन मुकर्रर न हो तो ' अजान ' और ' इकामत ' की निय्यत कर ले तों अज़ान और इकामत देने का सवाब भी मिलेगा ।
(31 ) जो रास्ता भटका हुआ मिलेगा , उसे रास्ता बताऊंगा ।
( 32 ) अन्धे की दस्तगीरी करूंँगा ।
(33 ) अग़र जनाज़ा मिलेगा तो नमाजे जनाजा पढुंगा ।
(34 ) और अगर वक्त होगा तो दफ़न करने तक जाऊंगा ।
(35 ) दो मुसलमान में आपस में झग़डा होगा , तो ' सुलैह ' कराने
की कोशिश करूंगा ।
(36 ) मस्जिद में दाखिल होते समय पहेले दायांँ पांँव और
(37 ) मस्जिद से बाहर निकलते समय पहले बायांँ पांँव रख कर सुन्नत पर अमल करूंगा ।
( 38 ) रास्ते में कुरआनी आयत लिखा हुआ काग़ज मिलेगा , तो उसे उठाकर अदब के साथ रख दूंगा । ( वगैरह वगैरह )
मुखतसर ये कि जो शख़स इन अणतिस ( 38 ) नेक इरादों के साथ घर से निकला है , वो सिर्फ़ नमाज ही के लिए नहीं जा रहा , बल्कि इन अणतिस ( 38 ) नेक काम करने के लिए जा रहा है । तो उसका चलना इन अणतिस नेक कामों की तरफ़ है और उसे हर क़दम पर अणतिस ( 38 ) नेकीयांँ मिलेंगी ।
नसीहत नं . 3
क़ब्र पर अज़ान देने की मुखालेफ़त करने वाले ज़ाहिल विरोधी यहाँ पर एक एतराज़ ये भी करते हैं , कि अज़ान तो नमाज़ क़ा ऐलान करने के लिए कही जाती है ।
यहां पर कौन सी नमाज़ होने वाली है कि जिस के लिए अज़ान कही जा रही है ।
लेकीन . ये उनकी साफ़ जिहालत है जो उनको ही शोभा देती है । ये लोग इतना भी नहीं जानते कि अज़ान देने में क्या क्या फायदे हैं
और शरीअत ने नमाज़ के इलावा बहुत सी जग़ह अज़ान देने को मुस्तहब फ़रमाया है । मिसाल के तोरे पर ग़मगीनी के वक़त कान में अज़ान देना या घबराहट दूर करने के लिए अज़ान देना जाइज कहा गया है |
... इंट का जवाब पथ्थर से...
क़ब्र पर दफ़न के बाद अज़ान देने की वहाबी . देवबंदी तबलीगी जमात के लोग सखती से मना करतें हैं ।
जब उनसे मना करने का कारण पूछने में आता है तो कहते हैं कि अज़ान के बाद नमाज होनी चाहिये और अब तो मुर्दा दफन हो चुका है ।
अब कौन सी नमाज़ बाकी है ?
इन लोगो के इस सवाल का जवाब ये हैं कि आ'ला हज़रत , इमाम अहमद रज़ा मोहद्दिसे बरेल्वी ( रहमतुल्लाहे अलैहे ) ने सहीह हदीसों और मुसतनद किताबों के हवालों से साबित कर दिया हैं कि ' नमाज़ के इलावा बहुत सी जगह और परिस्थिती में सिर्फ अज़ान कही जाती है , और उस अज़ान के बाद नमाज़ नहीं है ।
मिसाल के तौर पर
शैतान का खटका ( दखल ) दूर करने के लिए अज़ान देने का हदीस में हुक्म है । उस अज़ान के बाद नमाज़ नहीं ।
डर और गघभराहट अज़ान देने से दूर होते हैं । हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की घभराहट दूर करने के लिए हज़रत जिब्रईल अलैहिस्सलाम ने अज़ान कही थी । इन अज़ानों के बाद भी नमाज़ नहीं । सिर्फ अज़ान ही अज़ान है ।
हज़रत अली रदीअल्लाहो अन्हो
की गमगीनी दूर करने के लिए सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज़रत अली को कान में किसी को अज़ान कहने का हुक्म फ़रमाया ।
और इस इरशाद के मुताबिक में कई सहाबा - किराम - रिदवानुल्लाहि अलैहिम अजमइन ने अपनी गमगीनी दूर करने के लिए अज़ान देने का अमल किया ।
इन अज़ानों के बाद भी नमाज़ नहीं ।
सिर्फ़ अज़ान है बल्कि हदीस में सिर्फ कान में अज़ान देने का फरमान है , उस अज़ान के बाद नमाज़ का आदेश नहीं दिया गया ।
अगर हर अज़ान के बाद नमाज़ जरूरी मान ली जाए तो जुमा ( शुक्रवार ) के दिन , जुमे की नमाज़ के वक्त (समय )दो मरतबा अज़ान दी जाती है और नमाज़ तो सिर्फ एक ही होती है ।
जब अज़ानें दो ( 2 ) होती है तो फ़िर नमाज़ भी दो ( 2 ) होनी चाहिये ।
लेकिन नमाज़ सिर्फ एक (1) होती है । एक अज़ान की नमाज़ कहांँ गई ? हो सकता है कि तबलीगी जमाअत का कोई चाहने वाला ये जवाब दे कि (जुमा) जुम्आ के दिन जो दो (2) अज़ान होती हैं उसमें से एक अज़ान नमाज़ के लिए है और दूसरी अज़ान खुत्बा के लिए है ।
तो इस का जवाब
ये है कि अगर एक अज़ान खुतबा के लिए है तो उसका मतलब ये हुआ कि खुत्बा के लिए भी अज़ान जरूरी है । तो फ़िर ईद के दिन खुत्बे से पहले अज़ान क्यूंँ नहीं दी जाती ?
कई मरतबा जब भयंकर बीमारी ( प्लेग कोरोना जैसे मुहलिक बीमारी) फैल जाती है ।
या कभी आग़ सैलाब ( बाढ़ ) जैसी आफ़त आ जाती है और तमाम लोग बेचैनी और घभराहट का अनुभय करता है जैसे घभराहट के समय अज़ान देने को बुजुर्गाने - दीन ने मुस्तहब कहा है |
इन अज़ानों के बाद भी नमाज़ नहीं । सिर्फ अज़ान ही अज़ान है ।
अगर मान लिया जाए कि हर अज़ान के बाद नमाज़ जरुरी है , तो इस का एक मतलब ये भी हो सकता है कि हर नमाज़ से पहले अज़ान ज़रूरी है । क्युंकि अज़ान के बाद नमाज़ को जरुरी ठहरा कर अज़ान और नमाज़ का (सम्बन्ध) लाज़िम और मलजूम का कर दिया ,
यानी कि इन दोनों में से किसी एक की हाजिरी में दूसरे का वजूद सिर्फ जरूरी नहीं बल्कि ज़रूरी हो गया ।
तो फिर ईद की नमाज़ , चाश्त की नमाज़ , इराक की नमाज़ , अव्वाबीन की नमाज़ , तहज्जुद की नमाज़ और दीगर नमाज़ों से पहेले अज़ान क्यूं नहीं दी जाती ?
अज़ान के बाद नमाज़ को जरूरी समझने की हठधर्मी करने वालों को सिर्फ इत्ना ही कहना है कि जब तुम हर अज़ान के बाद नमाज़ को
जरूरी समझते हो , तो फिर हर नमाज़ से पहले अज़ान को जरूरी क्यूं नही समझते ?
ये One way ( एक दिशा ) क्यूँ ?
अंत में सिर्फ इत्ना कहना है कि अगर क़ब्र पर दफ़न के बाद अज़ान देना मना है , तो वो मना का वजह (कारण) क्या है ?
और क़ब्र पर अज़ान देने से कौन सा गुनाह लाज़िम होंगा ?
(1) शिर्क ,
(2) कुफ्र ,
(3) हराम ,
(4) ना जाइज़ ,
(5) बिदअत ,
(6) मकरुह या और कोइ ?
बहुत ज्यादा से ज़्यादा यही कहेंगे कि बिदअत हैं |
तो अगर बिदअत है तो कौन से प्रकार की बिदअत है ?
(1) बिदअते एतकादी ?
(2) बिदअते अमली ?
(3) बिदअते हसना ?
(4) बिदअते सय्येअह ?
(5) बिदअते मकरुह ?
(6) बिदअते हराम ?
(7) बिदअते जाइज़ ?
(8) बिदअते मुस्तहब ?
(8) या बिदअते वाजिब ?
लेकिन ... ये तो साफ़ साबित है कि क़ब्र पर अज़ान देने से रोकना , और रोकने के लिए जबरदस्ती , शिद्दत ( एहतियात ) करना और मार - पीट और झगडे - फ़साद तक मामले को पहुंँचा देना और मुसलमानों में खिलाफ ख़ड़ा करना गुनाह है ।
कुरआन और हदीसों में मुसलमानों के दरमियान फ़ित्ना ख़डा करने की सखत मनाई की गई है और ऐसा करने वालों का सख़त गुनाह और अज़ाब की चेतावनी ( वईद ) दी गई है ।
मुसलमानों में फूट डलवाना मोमीन का नहीं बल्कि मुनाफ़िक का काम है ।
एक बात की भी यहाँ पर वज़ाहत ( स्पष्टिकरण ) कर लें कि अगर किसी शहर या गांँव में दफ़न के बाद अज़ान देने की रस्म ( रिवाज ) है और उसको तबलीग़ जमाअत वालों ने बंँद करा भी दिया , तो क्या किया ?
सिर्फ यही ना कि अल्लाह का नाम लेने से लोगों को रोका । इस से विशेष कुछ नहीं ।
कोई बहादूरी का काम तो नहीं अल्लाह के बन्दों को अल्लाह का नाम लेने से रोका और अल्लाह का नाम लेने से रोकने का काम किस का है ?
इस का फ़ैसला खुद आप कराईन हजरात ही करें | ज्यादा अफ़सोस की बात तो ये है , कि मजहब की आड़ ( सहारा ) लेकर अल्लाह का नाम लेन से रोकने की कोशिश की जा रही है
और मुसलमानों में आपस में ना इत्तेफ़ाकी फैलाइ जा रही है ।
ज़िक्र रोके , फ़ज़ल काटे , नुकस का जोयां रहे ,
फिर करे मरदक के हूं , उम्मत रसूलुल्लाह की ।
( अज़ : - आला हज़रत )
ये तमाम अहादीस मेरे आका आलाहजरत सरकार इमाम अहमद रज़ा ख़ान मुहद्दिस बरेल्वी ने लोगों के सामने पेश फरमा दिया ताकी लोग जान ले मुर्दे के कब्रों के पास अजान देने की कितनी फजीलतें और बरकतें हैं और जो पूँछने की गरज से ताना देना होता है ऐसे लोगों को इन अहादीसे करीमा नहीं दिखायी पडती है उन्हें और तमाम अन्जान लोगों तक ऐसी मुस्तनद हदीसें और बेहतरीन जानकारियाँ पहुँचाये और जोर देकर कर कहें पूरा पढना।
और जो आज से ऐसा सवाल करे कि अजान देना कब्र के पास किस हदीस से साबित है तो हमारे साइट मे लायें और सबूत दें
और साथ ही साथ उनसे आप लोग भी सवाल करें किस हदीस में अजान ना देना का हुक्म है और ईंट का जवाब पत्थर से प्वाइन्ट बना दिया गया है उनसे उसी प्वाइन्ट का सवाल करें और इसे अपनों के साथ शेयर करें।
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