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Aala hazrat dargah 


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Ala Hazrat date of birth

Ala Hazrat date of birth 10 / शव्वाल 1272 हिजरी / 1880ईस्वी को 
  • यह इस्लामी इन्किलाब का बेबाक नकीब ,
  • मुहाफ़िज़े इस्लाम , 
  • फकीहे आज़म , 
  • नाबगए अस्र , 
  • यगानए रोज़गार , 
  • सरमायए इफ़तिखार ,
  •  मुसलमानों का यावर , 
  • उलमाए अमाइद की आंखों की ठण्डक , 
  • अस्लाफ़ की मुकद्दस यादगार , 
  • सुन्नीयत का अलमबरदार 
  • और मुजद्दिदे दीन व मिल्लत 
बरेली शहर के मुहल्ला सौदाग्रान में मौलाना नकी अली खान ( अलमुतवफ्फी 1297 हिजरी / 1880 ई ० ) को मौलाना रज़ा अली ( अलमुतवफ्फा 1282 हिजरी / 1895 ई ० ) के इल्मी घराने में पैदा हुआ 

पैदाईशी नाम " मुहम्मद " तारीखी " अल मुख्तार " रखा गया । 

जद्दे अमजद मौलाना रज़ा अली खान रहमतुल्लाह अलैहि आप को अहमद रज़ा खां कहा करते थे 

लेकिन सरवरे कौन व मकां सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का यह सच्चा गुलाम फखरिया अपने इस नाम से पहले अब्दुल मुस्तफा का इज़ाफ़ा करके यूं लिखा करता था : 
" अब्दुल मुस्तफ़ा अहमद रज़ा खां " इसी लिए तहदीसे नेमत के तौर पर कहा है । 

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ख़ौफ़ न रख रज़ा ज़रा , तू तो है अब्दे मुस्तफा 
तेरे लिए अमान है , तेरे लिए अमान है 
अहमद रज़ा खां बरेलवी कुद्देस सिरहू की हयाते मुबारका और सीरते मुकद्देसा का खाका देखना हो , तो उस आयते करीमा के मआनी व मतालिब में गौर कर लेना काफी है जो ख़ामए कुदरत ने अपने इस बन्दे की तारीखे विलादत के लिए उसकी ज़बान पर जारी फरमाई थी । वह इल्हामी तारीख यह है । 
ऊलाइका क त ब फी कुलूबिहिमुल ईमा न व अय्यद हुम बिरूहिम्मिन्हु । 
आप ने चार साल की उम्र में कुरआने पाक नाज़िरा पढ़ लिया था ,
छ : साल की उम्र में मिम्बर पर बैठ कर मजमए आम के सामने मीलाद शरीफ़ पढ़ा , 
आठ साल के हुए तो " हिदायतुन्नहो " की अरबी में शरह लिख दी 
और तेरह साल दस माह की उम्र में 14 शाबान 1289 हिजरी / 1870 ई को तमाम उलूमे दीनिया अकलीया व नकलीया की तकमील करके सनदे फरागत हासिल की । उसी रोज़ रज़ाअत के बारे में एक इस्तिफता का जवाब लिख कर अपने वालिदे मुहतरम , मौलाना नकी अली खान बरेलवी रहमतुल्लाह अलैहि की ख़िदमत में बग़र्जे इस्लाह पेश किया । 
जवाब बिल्कुल दुरूस्त था । वालिद ने उसी रोज़ फतवा नवेसी की ज़िम्मादारी आप के सुपुर्द कर दी और खुद इस बारे गिरां से सुबुकदोश होकर बाकी उम्र यादे इलाही में बसर करने का तहय्या कर लिया । आप ने इब्तदाई तालीम मिर्ज़ा गुलाम कादिर बेग से पाई , 
अकसर उलूमे दीनिया , अकलीया व नकलीया अपने वालिदे माजिद नकी अली खां रहमतुल्लाह अलैहि ( अलमुतवफ्फा 1297 हि ० / 1880 ई ० ) से हासिल किए । बाज़ उलूम की तकमील मौलाना अब्दुल अली रामपूरी , मुर्शिदे गिरामी शाह आले रसूल मारेहरवी ( अलमुतवफ्फा 1297 हि ० / 1880 ) और वाह अबुल हुसैन नूरी मारेहरवी ( अलमुतवफ्फा 1324 हि ० 1909 ई ० ) से की । 1291/1875 में आप की शादी खाना आबादी हुई । 
यह मुबारक तक़रीब शरई तरीके पर इन्तिहाई सादगी से अंजाम पाई और कोई ला यानी रस्म इस मौका पर तरफैन से अदा न की गई । 1294 हि ० / 1878 ई ० में आला हज़रत अपने वालिदे माजिद के हमराह , मारेहरा शरीफ हाज़िर हुए और सैयद आले रसूल मारेहरवी रहमतुल्लाह अलैहि ( अलमुतवफ्फा , 1297 हि . / 1880 ई ० ) के दस्ते हक़ परस्त पर सिलसिलए आलिया कादरीया बरकातिया में बैअत हुए । 
साथ ही चारों सलासिल की इजाज़त और ख़िरकए ख़िलाफ़त से भी नवाजे गए । अहले नज़र तो यहां तक कहते हैं कि हज़रत पीर व मुर्शिद इस बैअत के चन्द रोज़ पहले से यूं नज़र आते थे जैसे किसी का इन्तिज़ार कर रहे हों और जब यह दोनों हज़रात हाज़िरे ख़िदमत हुए तो हस्सासो बश्शाश होकर फ़रमाया ।

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तशरीफ़ लाइए , आप का तो बड़ा इन्तिज़ार था । " ( वल्लाहु आलम बिस्सवाब ) । मुर्शिद गिरामी के बारे में मन्कूल है कि आपने इस मौका पर इन्तिहाई मसर्रत का इज़हार फ़रमाया और उसकी वज़ाहत यह अल्फाज़ फ़रमाई । " आज वह फिक्र मेरे दिल से दूर हो गई क्योंकि जब अल्लाह तआला पूछेगा कि ऐ आले रसूल ! तू मेरे लिए क्या लाया है ? तो मैं अर्ज करूंगा कि इलाही ! मैं तेरे लिए अहमद रज़ा लाया हूं । 
इमाम अहमद रज़ा बरेलवी ने 1295 हि . / 1878 ई ० में अपने वालिदैन करीमैन के हमराह फरीज़ए हज अदा किया और मदनी सरकार , कौनैन के ताजदार , अहमदे मुख़्तार सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बारगाहे बेकस पनाह में हाज़िरी की सआदत हासिल की , जिससे दिलों को नूर , आंखों को सुरूर और ईमान को जिला (जिया) मिलती है । 
सबका देखना हकीकत में एक जैसा नहीं होता । नबी आखिरूज़्ज़मां सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को सहाबए किराम ने देखा और झुटलाने वालों ने भी , हज़रत अबू बक्र सिद्दीक ने देखा और अबू जेहल ने भी , क्या उन सब का देखना एक जैसा था ? 
हरगिज़ नहीं । हकीकत यह है कि जिसने आप को जैसा जाना और माना , बस वैसा ही देखा । आप एक शफ़्फ़ाफ़ तरीन आइना हैं । जैसा किसी का आप के मुताल्लिक अक़ीदा है वैसे ही आप उसे इस आइने में नज़र आ जाते हैं । 
इस आरिफ ए कामिल और अहले नज़र ने आपको पहचान लिया था और मुसलमानों को यही दर्स देते रहे थे कि वह भी इसी नज़र से मौलाए काईनात सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के रौज़ए अनवर को देखा करें यानीः । 
हाजियो आओ ! शहंशाह का रौज़ा देखो 
काबा तो देख चुके , काबे का काबा देखो

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इस मौका पर एक अजीब वाकिआ जुहूर पज़ीर हुआ , जिसका मौलवी रहमान अली मरहूम ने यूं तजकिरा किया है । “ एक दिन नमाज़े मगरिब मकामे इब्राहीम अलैहिस्सलाम में अदा की । 

नमाज़ के बाद इमाम शाफ़ईया हुसैन बिन सालेह जमलुल्लैल बगैर किसी साबिका तआलंफ के इनका हाथ पकड़ कर इनको अपने घर ले गए . 

देर तक इनकी पेशानी को थामे रहे और फ़रमाया । 

इन्नी लअजिदु नूरल्लाहे मिन हाज़ल जबीन ( बेशक मैं इस पेशानी से अल्लाह का नूर पाता हूं ) 

उसके बाद सिहाहे सित्ता की सनद और सिलसिलए कादरिया की इजाज़त अपने दस्ते ख़ास से मरहमत फ़रमाई और इरशाद फरमाया कि तुम्हारा नाम ज़ियाउद्दीन अहमद है । सनदे मजकूर में इमाम बुखारी ( रहमतुल्लाह अलैहि ) तक ग्यारह वास्ते हैं । इसी मौका के मुताल्लिक मौसूफ ने मजीद यूं भी लिखा है । मक्का मुअज्जमा में शैख़ जमलुल्लैल मौसूफ के ईमा से रिसाला जौहरे मज़ीया की शरह जो मनासिके हज में शाफई मज़हब के मुताबिक़ है , दो दिन में लिखी । यह रिसाला शैख़ हुसैन बिन सालेह की तस्नीफ़ है । 

मौलवी अहमद रज़ा खां ने इस ( शरह ) का नाम अन नय्यरतुल वज़ीया फी शरहिल जौहरतिल मज़ीया लिख कर शैख़ की खिदमत में ले गए । शैख़ ने इनके हक में तहसीन व आफ़रीन फ़रमाई .. रात को यानी नमाजे इशा के बाद मौलवी अहमद रज़ा खां मस्जिद हनीफ में तन्हा ठहर गए और वहां मगफिरत की बशारत पाई । 

अल्लाह इनको सलामत रखे । 1323 हि . / 1905 ई ० में आप दूसरी दफा हज्जे बैतुल्लाह और ज़ियारते रौज़ए मुतहहरा की सआदत से बहरा मन्द हुए । हरमैन शरीफैन की यह हाज़िरी गैबी थी क्योंकि इस में हक व बातिल का तारीखी फैसला होना था । 

यह हाज़िरी इस लिए मखसूस थी कि जिन लुसूसे दीन की आप तरदीद करते रहे थे और वह किसी तरह बाज़ न आए , तो मुसलमानों को उनके शर से महफूज़ रखने यानी खैर ख़्वाही इस्लाम व मुसलिमीन की खातिर 1320 ई ० में अल मोतमदुल मुस्तनद के अन्दर हुक्मे शरअ बयान करते हुए उन उलमाए सूअ की तकफ़ीर का शरई फ़ीज़ा अदा किया था . कस्सामे अज़ल को यह मंजूर था कि
आप के इस फतवे की तस्दीक व ताईद दरबारे रिसालत यानी रियारे रसूल से हो जाये । 

चुनांचे उलमाए हरमैन शरीफैन ने आपके फतवे की तस्दीक व ताईद की , उसके मुतअल्लिक तकरीजें लिखीं , जिन के मजमूये का तारीखी नाम होस्सामुल हरमैन अला मंहरिल कुफ्रे वल मुबीन है । इस मुबारक मौका पर " अबोलतुल मक्कीया बिल माद्दतिल गैबीया " जैसी तालीफ़ मसनय शहूद पर जलवा गर हुई । 

हिन्दी और नज्दी वहाबियों ने शरीफे मक्का के दरबार में मसला इल्मे गैब पेश किया हुआ था । मुफ्तीए अहनाफ़ शैख़ सालेह कमाल मक्की रहमतुल्लाह अलैहि ( अल मुतवफ्फा 1325 हि . / 1907 ई ० ) की खिदमत में वहाबिया की जानिब से पांच सवाल पेश हो चुके थे । मुफ्तीए अहनाफ़ का दर्जा उन दिनों शरीफ़ के बाद दूसरा शुमार होता था । 

मौसूफ ने वह सवाल आला हज़रत अलैहिर्रहमा की ख़िदमत में पेश किए । आप ने बुखार की हालत में मुख़्तलिफ़ नशिस्तों के अन्दर साढ़े आठ घन्टों में " अद्दौलतुल मक्कीया " के नाम से बगैर किताबों की मदद के वह जवाब लिखा कि उलमाए मक्का अंगुश्त बदन्दा हो गए और मुनकिरीने शाने रिसालत का तो ऐसा मुंह बन्द हुआ कि साकित व मबहूत होकर रह गए । 

यह माया नाज़ इल्मी शहकार और ताईदे ईज़्दी व नज़रे इनायते मुस्तफ़वी का ज़िन्दा सुबूत सत्तर साल से ला - जवाब है और कियामत तक ला - जवाब ही रहेगा । क्योंकि " अल इस्लामु यालू वला युला । इस्लाम गालिब ही रहता है यह मगलूब होने के लिए नहीं है । 
यह रिसाला शरीफे मक्का के दरबार में , मुनकिरीन व मुआनेदीन के रूबरू , मौलाना शैख़ सालेह कमाल काजी मक्का मुकर्रमा ने पढ़कर सुनाया । उस वक़्त मुनकिरीने शाने रिसालत की जो रूसियाही हुई वह एक तारीखी वाकिआ है । उलमाए मक्का मुकर्रमा और उनके बाद उलमाए मदीना मुनव्वरह और उनके बाद दीगर बिलाद व अमसार के उलमाए किराम व मुफ्तियाने एज़ाम ने इस रिसाले पर धूम धाम से सालहा साल तक तकरीजें लिखीं और इरसाल फ़रमाई । 

इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी को अज़ीम व जलील खिताबात से नवाज़ा और हरमैन
तय्यबैन के उलमाए किराम ने जो पूरे आलमे इस्लाम के लिए काबिले ताज़ीम व लाइके एहतराम हैं , आप का अदीमुन्नज़ीर एजाज़ व इकराम किया । 

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आप को नादिरे रोज़गार , सरमायए इफ्तिखार , सर ताजुल उलमा , फकीहे आज़म , मुहद्दिसे यगाना , मुहाफिज़े शाने रिसालत , हुज्जते इलाही की तेगे बरां , इमाम अहले सुन्नत और मुजद्दिदे दीन व मिल्लत करार दिया । आप से सनदें और इजाज़तें लीं । 
यही वह मुबारक मौका था जब रिसालए मुबारका किफ़लुल फ़कीहिल फाहिम फी अहकामे किरतासिद्दराहिम " की तस्नीफ़ अमल में आई । 
नोट : उन दिनों एक नई ईजाद थी आलमे इस्लाम के उलमाए किराम व मुफ्तियाने एजाम इस के बारे में तसल्ली बख़्श शरई हुक्म मालूम न कर पाए थे । 
इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी की मुहक्किकाना अज़मत और इल्मी वुसअत उलमाए हरमैन और खुसूसन उलमाए मक्का मुकर्रमा पर वाज़ेह हो चुकी थी । मौका गनीमत जान कर मक्का मुअज्जमा के दो आलिमों ने नोट के मुतअल्लिक बारह सवाल आप की खिदमत में पेश कर दिए । उन सवालों के जो मुहकिकाना जवाबात तहरीर किए गए वह एक रिसाले की सूरत में किफ़लुल फकीह के नाम से जमा किए गए । उलमाए हरमैन ने इस रिसाले की मुतअद्दिद नकलें की और मुफ्तियाने एज़ाम ने अपने पास रखीं । नोट का सही हुक्मे शरई मालूम करके पूरे आलमे इस्लाम को इस परेशानी से नजात देने वाला सिर्फ इमाम अहमद रज़ा खां बरैलवी है , 
आप से पहले दुनिया के किसी आलिम से नोट का सही हुक्म और इस की शरई हैसियत बयान नहीं की जा सकती थी । इस सिलसिले में दीगर उलमा के 1324 हि . / 1909 ई ० से पहले के फ़तवे देख कर हमारे बयान की खुद तस्दीक की जा सकती है । 
इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी सच्चे आशिके रसूल और इशके रसूले हाशमी की एक पिघलती हुई शमा थे 14 - शाबान 1289 हि . / 1870 ई ० से 25 सफर 1340 हि . / 1921 ई ० तक निस्फ सदी से ज़्यादा अरसा आप मुसलमानाने आलम को मोहब्बते रसूल के जाम पिलाते रहे क्योंकि इस्लाम की जान और रूहे ईमान यही है । इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी नुरूल्लाहु मरकदुहू का यह मिशन उनकी तसानीफ़ के ज़रिए आज भी जारी है । उनकी कल्मी निगारिशात कयामत तक मुसलमानों को मस्त जामे बादए उल्फ़त और साकिए कौसर व तस्नीम का वाला व शैदा बनाती रहेंगी । 
आला हज़रत का आशिके रसूल होना उनके मुखालिफ़ीन के नज़दीक भी मुसल्लम है । एक मौका पर आप ने तहदीसे नेमत के तौर पर फ़रमाया था । खुदा की कसम , अगर मेरे दिल को चीर कर दो टुकड़े कर दो । तो एक पर ला इलाहा इल्लल्लाह और दूसरे पर मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह लिखा हुआ पाओगे । इसी लिए आप बारगाहे रिसालत में यूं अपनी तमन्ना पेश किया करते थे । 
करूं तेरे नाम पे जां फ़िदा 
न यह एक जां दो जहां फिदा 
दो जहां से भी नहीं जी भरा 
करूं क्या करोड़ों जहां नहीं 

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इस नाबगए अस्र और अदीमुन्नज़ीर मुसन्निफ ने तकरीबन पचास उलूम व फुनून पर मुशतमिल तसानीफ़ छोड़ी , जिन का शुमार एक मुहतात अन्दाज़े के मुताबिक एक हज़ार के लगभग है । 

कसीरूत्तसानीफ और इतने उलूम का जामे होने के लिहाज़ से यकीनन आप का शुमार मिल्लते इस्लामिया की मुन्फरिद और मुम्ताज़ हस्तियों में है । बाज़ उलूम तो वह हैं जिन के मूजिद होने का शर्फ आप ही को हासिल है । कई ऐसे इल्म भी हैं जो आप के साथ ही दफन हो गए और उन में किसी कामिल का पाया जाना तो दूर की बात है , 

उनकी अदना मालूमात रखने वाला भी कोई नज़र नहीं आता । आप के जामिउल उलूम होने पर मुखालिफ़ीन व मुआनिदीन को भी नाज़ था । आप ने तफसीर , हदीस , फिकह , कलाम और तसव्वुफ़ वगैरह की डेढ़ सौ के लगभग मशहूर व मुतदाविल किताबों पर हवाशी लिखे थे । 

जो किसी तरह मुस्तकिल तसानीफ से कम नहीं लेकिन वाए हमारी बेहिस्सी । अल्लामा इकबाल मरहूम का दिल अकाबिर के जवाहिर पारों , इल्मी शहकारों को यूरोप की लाइब्रेलियों में देख कर सी पारह होने लग जाता था लेकिन दुनियाए इस्लाम के इस मायए नाज़ मुहफ़िक के कितने ही इल्मी जवाहिर व ज़खाइर बरैली शरीफ़ में कीड़ों की खूराक बन रहे हैं । 

क्या यह तारीखी अलमीया , इल्म दोस्त हज़रात को खून के आंसू न रूलाता होगा ? 

क्या यह मौजूदा मुसन्निफीन अपनी तखलीकात के ज़रिए हमें इस मुहकिके यगाना की तहकीकात से बेनियाज़ कर सकते हैं ? इस सिलसिले में उलमाए अहले सुन्नत का जवाब ख़्वाह कुछ भी हो , लेकिन इस नाचीज़ का सवाल डाक्टर इक़बाल मरहूम के लफ़ज़ों में कुछ इस तरह है । 
हूबहू खींचेगा लेकिन इश्क का तस्वीर 
कौन उठ गया नावक फगन मारे गा दिल पर तीर 


कौन फ़ाज़िले बरेलवी कुद्देस सिरहू एक बुलन्द पाया मुफस्सिर , मायए नाज़ मुहद्दिस , नादिरे रोज़गार मुतकल्लिम और अदीमुन्नज़ीर फकीह थे । 

इस पर तुर्रह यह कि कितने ही दीगर उलूम व फुनून में भी आप को दरजए इमामत हासिल था लेकिन सैयदना इमामे आज़म अबू हनीफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु ( अलमुतवफ्फ १५० हि . ) के इस सच्चे वारिस ने भी इमामुल मुसलिमीन की तरह फिकह को अपना खुसूसी मैदान करार दिया था ।

 यही वजह है कि फतावा रज़वीया शरीफ़ आप का मायए नाज़ इल्मी शहकार है । इस का पूरा नाम भी इस फ़ना फिर्रसूल हस्ती ने वही तजवीज़ किया जो हकीकत का आईनादार है यानी " अल अता या अन्नबवीया फी फतावर्रज़वीया । " यह बारह जिल्दों पर मुशतमिल है और हर जिल्द जहाज़ी साइज़ के तकरीबन एक हज़ार सफ़हात पर फैली हुई है । बाज़ फ़तवे तहकीक व तदकीक के इस आला मकाम पर फाइज़ हैं कि आप के वह मुआसिर जिन्हें फ़काहत में हर्फे आखिर समझा जाता था , 

जब इस इमामे अहले सुन्नत के फतवे उन हज़रात की नज़रों से गुजरे तो फाज़िले बरेलवी अलैहिर्रहमा के मुकाबले में उन्होंने खुद को तिफले मकतब शुमार किया और आप से कस्बे फैज़ को गनीमत जाना । 

बाज़ मसाइल पर दादे तहकीक देते हुए जब आप ने बारह सौ साला फिकही ज़खीरों को खंगाल डाला , इमामुल अइम्मा कुद्देस सिर्रहु से लेकर अल्लामा शामी अलैहिर्रहमा तक तहकीक को पहुंचाया 
हर दौर में उसे जिन लफ़्ज़ों में बयान किया गया , किसी से कोई कमी या बेशी हुई तो उसका ज़िक्र , साथ ही वजूहात कि ऐसा क्यों हुआ ?

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 कौन सा मुकिफ अकरब इलल हक है और किन दलाइल के तहत ? 

गर्ज़ ये कि इस अन्दाज़ से मैदाने फकाहत में दादे तहकीक देते चले गए कि दुनियाए इस्लाम के मायए नाज़ इल्मी फ़र्ज़न्दों को वरतए हैरत में डाल दिया और आसमाने फकाहत के शम्स व कमर समझे जाने वाले हज़रात आप की तहकीकाते जलीला को देख कर अंगुशत बदन्दां ही रह जाते थे । 

इसी लिए मक्का मुकर्रमा के जलीलुल क़द्र आलिमे दीन , मौलाना सैयद इस्माईल बिन सैयद खलील रहमतुल्लाह अलैहिमा ( अलमुतवफ्फ 1338 हि . / 1919 ई ० ) ने फ़रमाया था और बजा फ़रमाया था कि अगर इमाम अबू हनीफा इस हस्ती को देखते तो अपने अस्हाब में शामिल फ़रमा लेते । 

आप से इखतिलाफ रखने वाले तो बेशुमार हैं । लेकिन शायद ऐसा एक भी मुआनिदे अहले इल्म में से न मिल सके जो आप की अदीमुन्नज़ीर फकाहत का मुनकिर हो । 

इन हकाइक के पेशे नज़र बे इख्तियार कहना पड़ जाता है कि । है फतावा रज़वीया तेरे कलम का शाहकार सर बसर फ़ज़ले खुदा , नबवी अता , पाइन्दा बाद आपको दूसरा इल्मी शहकार कंजुल ईमान फी तर्जमतिल कुरआन है । 

यूं तो कुरआने करीम का कितने ही उलमा ने उर्दू ज़बान में तर्जमा किया है जिन में से मौलवी महमूदुल हसन देवबन्दी ( अलमुतवफ्फा 1339 हि . / 1920 ई ० ) मौलवी अशरफ अली थानवी ( अलमुतवफ्फ 1392 हि . / 1943 ई ० ) मौलवी फ़तह मुहम्मद खान जालन्धरी , डिप्टी नज़ीर अहमद देहलवी और जनाब अबुल आला मौदूदी के तराजिम पाक व हिन्द में आज कल बड़ी आब व ताब से शाया हो रहे हैं 

और इन हज़रात को कलामे इलाही की तर्जमानी के अलमबरदार मनवाने की भर पूर सई की जाती रही है लेकिन इन्साफ की नज़र से देखा जाए तो इन हज़रात ने अपने अपने मासूस ख्यालात को तर्जमे की आड़ में कुरआन करीम से साबित करने के इलावा और कुछ नहीं किया ।

 मुसलमानाने अहले सुन्नत 
बोल रहा था और कितने ही साहिबाने जुब्बा व दस्तार भी उसके हाथों पर बैअत करके दीने मुस्तफ़वी पर आज़ादी और स्वराज को तरजीह दे सुन्नत व जमाअत को कुरआनी खिदमत के नाम पर अपने अपने धडे की तरफ खींचने और अपना मोतकिद बनाने की एक चिकनी चुपड़ी जसारत की है । 

हमारी दूसरी किताब मुतअल्लिका कंजुल ईमान के तहत इन उर्दू तर्जमों की हकीकत पर मुदलल्ल बहस मौजूद है । 

Aalahazrat ki zindagi life of aalahazrat urse razvi 2024 present 

इन्साफ़ पसन्द हज़रात उस बयान को पढ़कर इन्शाअल्लाह तआला यही फैसला करने पर मजबूर होंगे कि कुरआने करीम की तर्जमानी का अगर उर्दू में किसी ने हक अदा किया है तो वह कंजुल ईमान " है और बेसाख्ता यूं पुकार उठेंगे कि 

: तर्जमा कुरआन का लिखा , कंज़े ईमां कर दिया ये मुफस्सिर ! वाकिफे रम्ज़े खुदा , पाइन्दा बाद आप का तीसरा शहकार " हदाइके बख़शिश " है । यह आप का नातिया दीवान है ।

 यानी इस सच्चे आशिक़ , फ़ना फिसूल ने अपने महबूब के औसाफ़ कलामे इलाही में देखे , उन्हें अपने लंफज़ों में बयान करके अपने कल्बे मुज़तर को तस्कीन दी , मुसलमानों को सुकू बख़्श , राहत अफ़ज़ा नुस्खा बताया । 

महबूब की सिफत व सना बयान करते वक़्त कल्ब का इज़तिराब , जिगर का सोज़ , आंखों के आंसू और सीने की आहें भी अल्फाज़ के जिस्म में पेवस्त करके फिर बुलबुले बागे मदीना बन कर चहचहाया , उसने अपने इन प्यारे प्यारे और ईमान अफ़रोज़ नगमों से अहले इस्लाम के कुलूब को गरमाया , उन्हें साकीए कौसर व तसनीम का शैदाई बनाया और लुसूसे दीन के नर्गे से निकाल कर अपने और सारी काईनात के आका व मौला , सरवरे कौनो मकां सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के दरे अकदस पर झुकाया क्योंकि । 

बमुस्तफा बरसां वेश रा कि दीन हमा ऊस्त 

अगर बउनर सैयदी तमाम बू लहबी यस्त 

जिस वक़्त बरे सगीर पाक व हिन्द की फज़ाओं में गांधी का तोती रहे थे । हिन्दू मुस्लिम इत्तिहाद का नारा बुलन्द करके इस्लाम व कुफ्र और बुत शिकन व बुत परस्त का फ़र्क मिटाया जा रहा था .. अकबरी दौर की याद ताज़ा की जा रही थी , उस वक़्त मुत्तहिदा कौमीयत के फितने की मुखालिफ़त करने वाले और दो कौमी नज़रिए का अलम बुलन्द रखने वाले , यही इमाम अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी थे या आपके रूफकाए कार । 

उन दिनों मुहम्मद अली जौहर , मुहम्मद अली जिनाह और डाक्टर इकबाल मरहूम जैसे बेदार मगज़ लीडर भी हिन्दू मुस्लिम इत्तिहाद की पुर ज़ोर हिमायत कर रहे थे । 

उस नाजुक वक्त में हज़रत इमाम रब्बानी मुजद्दिदे आलिफ़े सानी सर हिन्दी कुद्देस सिर्रहू ( अलमुतवफ्फा 1038 हि . / 1624 ई ० ) की तरह दो कौमी नज़रिए का कलन्दराना नारा फ़ाज़िले बरेलवी ही बुलन्द कर रहे थे और मुसलमानाने हिन्द की सियासी रहनुमाई का फ़ीज़ा अदा करके उन्हें हिन्दूओं में मुदग़म होने से बचा रहे थे । 

1339 हि . / 1920 ई ० में आप ने अल मुहज्जतुल मोतमिना " किताब लिख कर गांधवी उलमा के सारे मज़ऊमा दलाइल के तार पौद बिखेरकर गांधवीयत के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी । 

आला हज़रत के रूफकाए कार ने भी उस मौक़ा पर काबिले कद्र तसानीफ़ लिख कर मुत्तहिदा कौमीयत के फ़ितने को बे असर बनाने की पुर ज़ोर कोशिश की ।

 यही हज़रत मुजद्दिदे अलफे सानी और इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी वाला " दो कौमी नज़रिया " है जिस की बिना पर पाकिस्तान का वजूद और कयाम अमल में आया । इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी को इल्मे रियाज़ी में कहां तक कमाल हासिल था और यह इल्म आप ने कहां से हासिल किया था ? 

इन सवालात के सिलसिले में एक वाकिआ पेश करता हूं , जिस में जुमला उमूर का शाफ़ी जवाब है । एक मर्तबा सैयद सुलैमान अशरफ़ साहब बिहारी प्रोफेसर दीनियात अली गढ़ कालेज ने आला हज़रत की खिदमत में इस मज़मून का ख़त लिखा कि " डाक्टर सर ज़ियाउद्दीन साहब जो इल्मे रियाज़ी में जर्मन , इंगलैण्ड वगैरह मालिक की डिगरियां और तमगा जात हासिल किए हुए हैं , अरसा से हुजूर की मुलाकात के मुशताक हैं , 

फिर चूंकि वह एक
जन्टिल मैन हैं , इस लिए आप की ख़िदमत में आते हुए एक झिझक महसूस करते हैं , लेकिन अब मेरे कहने और अपने इशतियाके मुलाकात के सबब हाज़िर होने के लिए आमादा हो चुके हैं , लिहाज़ा अगर वह पहुंचे तो उन्हें बारियाबी का मौका दिया जाए । 

" आला हज़रत ने मौलाना को जवाब भेजा कि वह बिला तकल्लुफ़ तशरीफ़ ले आयें । चुनांचे दो चार रोज़ के बाद डाक्टर सर ज़ियाउद्दीन बरैली पहुंच कर आला हज़रत की बारगाह में हाज़िर हुए . नमाज़ के बाद दौराने गुफ्तगू में आला हज़रत ने एक कल्मी रिसाला पेश किया , 

जिस को देखते ही डाक्टर साहब हैरत व इस्तेजाब में हो गए और बोले कि मैं ने इस इल्म को हासिल करने के लिए बारहा गैर ममालिक के सफर किए मगर यह बातें कहीं भी हासिल न हुई ।

 मैं ने तो अपने आप को इस वक्त बिल्कुल तिफ़ले मकतब समझ रहा हूं , मेहरबानी फरमा कर यह बतायें कि इस फ़न में आपका उस्ताद कौन है ? 

आला हज़रत ने इरशाद फरमाया मेरा कोई उस्ताद नहीं है । मैं ने अपने वालिद माजिद अलैहिर्रहमा से जमा , तफरीक , ज़रब और तकसीम के चार कायदे सिर्फ इस लिए सीख लिए थे कि तरके के मसाइल में उनकी ज़रूरत पड़ती है । शरह चग़मीनी शुरू की थी कि हज़रत वालिदे माजिद ने फरमाया कि इस में अपना वक्त क्यों सर्फ करते हो ? 

मुस्तफा प्यारे की बारगाह से यह उलूम तुम को खुद ही सिखा दिए जायेंगे । इसी इल्मे रियाज़ी के मुतल्लिक एक वाकिआ और पेशे खिदमत है , जिस से यह अन्दाज़ा बखूबी लगाया जा सकता है 

कि जब किसी पर हबीबे परवरदिगार , अहमदे मुखतार सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की खुसूसी नज़रे करम हो जाए तो उसे किस किस तरह नवाज़ा और निखारा जाता है ।

 अल्लामा जफरूद्दीन बिहारी अलैहिर्रहमा यूं रकम तराज़ हैं । " मौलाना मुहम्मद हुसैन साहब मेरठी बानी तिल्सिमी प्रेस बयान करते हैं कि मुस्लिम यूनीवर्सिटी अलीगढ़ के वाइस चान्सलर , जिन्होंने हिन्दुस्तान के अलावा यूरोप के ममालिक में तालीम पाई थी और रियाज़ी में कमाल हासिल किया था 

और हिन्दुस्तान में काफ़ी शोहरत रखते थे , इत्तिफ़ाक़ से उनको रियाज़ी के किसी मसला में इश्तिबाह हुआ । हर चन्द कोशिश की मगर वह हल न हुआ । 

चूंकि साहबे हैसियत थे और इल्म के शाइक , इस लिए कस्द किया कि जर्मन जाकर उसको हल करें .. वाइस चानसलर साहब ने बताया कि मैं रियाज़ी का एक मसला पूछने आया हूं । आला हज़रत ने फरमाया । पूछिए । 

वाइस चान्सलर साहब ने कहा । वह ऐसी बात नहीं है जिसे मैं इतनी जल्दी अर्ज कर दूं । 

आला हज़रत ने बताया । आखिर कुछ तो फरमाइए । ग़र्ज़ वाइस चान्सलर ने सवाल पेश कर दिया । आला हज़रत ने सुनते ही फ़रमाया । इसका जवाब यह है । 

यह सुन कर उनको हैरत हो गई और गोया आंखों से पर्दा उठ गया । बे इख़्तियार बोल उठे कि मैं सुना करता था कि इल्मे लदुन्नी भी कोई चीज़ है , आज आंख से देख लिया । मैं इस मसला के हल के लिए जर्मन जाना चाहता था कि हमारे प्रोफेसर जनाब मौलाना सैयद सुलैमान अशरफ़ साहब ने मेरी रहबरी फ़रमाई । 
मेरे करीम से गर कतरा किसी ने मांगा 
दरिया बहा दिए हैं , दुरबे बहा दिए हैं 

Aalahazrat ki zindagi life of aalahazrat urse razvi 2025 present 

इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी की फन्ने तकसीर में महारत का अन्दाज़ा करने की खातिर यह वाकिआ और वज़ाहत मुलाहिज़ा हो : " आला हज़रत के शागिर्द हज़रत मौलाना सैयद ज़फरूद्दीन बिहारी अलैहिर्रहमा को एक शाह साहब मिले , जिनका ख्याल था कि फन्ने तकसीर का इल्म सिर्फ मुझको है । 

दौराने गुफ़्तगू में मौलाना बिहारी ने उन से दरयाफ्त किया कि जनाब नक्शे मुरब्बा कितने तरीके से भरते हैं ? 

शाह साहब मजकूर ने बड़े फ़ख़रिया अन्दाज़ में जवाब दिया कि सोला तरीके से । फिर उन्होंने मौलाना बिहारी से पूछा कि आप कितने तरीके से भरते हैं ? 

मौलाना ने बताया कि अल्हमदुलिल्लाह , मैं नक्शे मुरब्बा को गियारह सौ बावन तरीके से भरता हूं । 

शाह साहब सुनकर महवे हैरत हो गए और पूछा कि मौलान ! आपने फन्ने तकसीर किस से सीखा है ? 

मौलाना बिहारी ने फरमाया । हुजूर पुर नूर आला हज़रत
इमाम अहमद रज़ा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु से । शाह साहब ने दरयाफ्त किया कि आला हज़रत रज़ियल्लाहु तआला अन्हु नक्शे मुरब्बा कितने तरीकों से भरते थे ? मौलाना बिहारी ने जवाब दिया कि दो हज़ार तीन सौ तरीके से । 

फिर तो शाह साहब ने हमा दानी का कीड़ा दिमाग से निकाल बाहर किया । फन्ने तौकीयत की महारत के सिलसिले में अल्लामा बदरूद्दीन अहमद साहब यूं रकम तराज़ हैं । " फन्ने तौकीयत में आला हज़रत के कमाल का यह आलम था कि सूरज आज कब निकलेगा और किस वक्त डूबेगा ।

 इस को बिला तकल्लुफ़ मालूम कर लेते । सितारों की मारिफ़त और उनकी चाल की शिनाख्त पर इस कदर उबूर था कि रात में तारा और दिन में सूरज देख कर घड़ी मिला लिया करते और वक्त बिल्कुल सही होता , एक मिनट का भी फर्क न पड़ता था । 

17 अक्तूबर 191, ई ० को पटना के अंग्रेजी अखबार " एक्सप्रेस " में एक अमेरिकी साइन्सदां , प्रोफेसर अलबर्ट की एक पेशगोई शाए हुई । मौसूफ ने इल्मे नुजूम व हैयत पर मुतअद्दिद दलाइल काइम करके उसे एक हकीकत मनवाने की पूरी कोशिश की । उस पेशगोई का खुलासा यह है कि 17 / दिसम्बर 1919 ई ० को फलां फलां सैयारे और सूरज किरान में होंगे । 

सैयारे अपनी कशिश से सूरज को ज़ख्मी कर देंगे जिस के बाइस उस रोज़ सख़्त तूफान और ज़लज़ले आयेंगे और ज़मीन ऐसी डांवाडोल होगी कि कई हफ्तों में अपनी असली हालत पर आने के काबिल हो सकेगी । इस हौलनाक पेशगोई ने दुनिया में उमूमन और हिन्दुस्तान में खास तौर पर एक तहलका मचा दिया था । 

इमाम अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी को जब इस वाकिए का इल्म हुआ तो आप ने प्रोफेसर अलबर्ट के दलाइल का जाइज़ा लिया । मौसूफ के दलाइल को महज़ एक अक्ली ढकोसला साबित किया । 

कुरआनी तालीमात की रौशनी में अलबर्ट के दावे को रद किया , इल्मे नुजूम , हैयत और जीजात के तहत मौसूफ के बयानात व मज़ऊमा दलाइल को तारे अन्कबूत से कमज़ोर साबित कर दिखाया । 

आप का यह हैरत अंगेज़ तज्जीया मुख़्तलिफ़ अख़बारात व रसाइल में शाए हुआ ताकि मुत्तहिदा हिन्दुस्तान के मुसलमान उस पेशगोई पर यकीन करके अपने ख्यालात को मुतज़लज़ल न कर बैठें । 

आप की उस हैरत अंगेज़ तहरीर का खुलासा हयाते आला हज़रत में सफा 95 ता 97 और सवानेह आला हज़रत में सफा 75 ता 76 मौजूद है । इन उलूम से दिलचस्पी रखने वाले हज़रात मजकूरा कुतुब की तरफ़ रूजू करके बाज़ दलाइल मुलाहज़ा फ़रमा सकते हैं । हकीकत यह है कि इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी अलैहिर्रहमा को इतने उलूम व फुनून में जो कमाल हासिल हुआ , 

उस का बहुत कम हिस्सा कस्बी और अक्सर व बेशतर वहबी है । यह अम्र हर उस जी इल्म से पोशीदा नहीं जिस की फ़ाज़िले बरेलवी के हालाते ज़िन्दगी और आप की तसानीफ़ पर नज़र है ।

 जुमला बुजुर्गाने दीन के हालात इस अम्र की वाज़ेह शहादत हैं कि जिस तरह वह हज़रात दीने मतीन की हिमायत और अलाए कलिमतुल हक की खिदमात सर अंजाम देने के लिए खड़े हुए तो ताईदे रब्बानी और इनायते मुस्तफ़वी ने हमेशा उनकी दस्तगीरी और सर परस्ती फ़रमाई । 

यही वजह है कि उन बुजुर्गों ने इस राह की दुश्वार गुज़ार तरीन घाटियों और सख्त से सख्त मराहिल को पूरे अज़्म व इस्तिकलाल से खन्दा पेशानी के साथ उबूर किया और मंज़िले मकसूद पर पहुंचने से उन्हें कोई दुशवारी ने रोक सकी ।

 आप के ज़माने में फिर्का बाज़ी का जिस तरह फितना उठा , लुसूसे दीन ने इस्लाह के नाम पर जिस तरह भोले भाले मुसलमानों को गुमराह करना शुरू किया , कितने साहिबाने जुब्बा व दस्तार ने अहले इस्लाम को ईमान से कोरे रखने की मुहिम चलाई . 

उन सब के मुकाबले में आप का मैदान में कूदना , चौमुखी लड़ाई लड़ना , अज़मते खुदावन्दी व शाने मुस्तफवी का दिफा करना , इस्लाम और मुसलमानों की खैर ख्वाही में जुमला मुब्तदेईन को आजिज़ कर दिखाना , यह ताईदे रब्बानी और इनायते मुस्तफ़वी ही का करिश्मा है ।
आप ने मुकद्दस शजरे इस्लाम में गैर इस्लामी अकाइद व नज़रियात की पेवन्द कारी करने वालों से कल्मी जिहाद किया नीज़ उलमाए हक़ और उलमाए सू में पहचान कराई । ऐसे मुस्लेहीन के तअक्कुब में आप हमेशा सरगरमे अमल रहे जो नए नए फिर्के बनाकर मुसलमानों के इत्तिहाद को पारह पारह कर रहे थे । 

और बात बात पर मुसलमानों को मुश्रिक , काफ़िर और बिदअती ठहराने को दीन की ख़िदमत समझते थे । फाज़िले बरेलवी ने ऐसे हज़रात के जुमला मज़ऊमा दलाइल के तार पौद बिखेर कर रख दिए और मुजद्दिदाना शान के साथ दूध का दूध और पानी का पानी कर दिखाया । 

ख़ालिके काईनात की सिफात को जब उलमाए सू ने अपने गलत अक्ली पैमानों से मापना शुरू कर दिया , खुद साख़्ता तौहीद की तबलीग़ करने लगे , सरवरे कौनो मकां सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के कमालाते आलिया की ऐसी हुदूद मुतअय्यन करने लग गए जिस की कोई मुसलमान हरगिज़ जसारत नहीं कर सकता । उन हालात से मजबूर होकर आप ने अज़मते खुदावन्दी और शाने मुस्तफ़वी का अलम बुलन्द किया था । 

ऐसा करने वालों को समझाया बुझाया , खौफे खुदा और ख़तरए रौज़े जज़ा याद दिलाया , जब वह किसी तरह बाज़ न आए और ब्रिटिश गवर्नमेंट के हाथों कठपुतली बन कर अपनी मखसूस डगर पर ही चलते रहे तो आप भी इस्लाम और मुस्लिमीन की खैर ख्वाही में आखरी वक्त तक उनका रद्दे बलीग करते रहे ।

 यही आप का वह जुर्म है जिस की पादाश में उम्र भर सम्बो शतम का निशाना बनते रहे और आज तक उन मुन्तदेईन की मानवी जुर्मीयत आप के खिलाफ इतना ज़हर उगल रही है , 

जिस का अशरे अशीर भी इन बांके मुवहहेदीन को काफिरों और मुश्रिकों के खिलाफ बोलना नसीब नहीं हुआ । अगर आप फिस्के बातिला के अलमबरदारों को न टोकते , इस्लामी अकाइद व नज़रियात की मन मानी ताबीरें करने वालों का मुहासबा न करते तो तमाम फिकों के नामवर उलमा भी इस अकरीए इस्लाम और नाबगए अस्र की इल्मी अज़मत व जलालत को बरमला तस्लीम कर
लेते लेकिन दीन के मुहाफ़िज़ों ने तहसीन व आफ़रीन की ख़ातिर ऐसी सौदा बाज़ी कभी नहीं की । 

Aalahazrat ki zindagi life of aalahazrat urse razvi 2024 present 

आप अज़मते खुदावन्दी व नामूसे मुस्तफ़वी के निगहबान और इस्लाम के पासबान थे , इसी लिए तान व तशनीअ और तहसीन व आफरीन से बे नियाज़ होकर , हर हालत में अपना फर्ज़ अदा करते रहे । 

किसी बेदार जमाअत में अगर इस मर्तबे का कोई आलिम पैदा हो जाता तो वह लोग उसके उलूम व फुनून से न सिर्फ खुद मुस्तफ़ीद होते बल्कि पूरी दुनिया को उसके अफ़कार व नज़रियात पढ़ने और समझने पर मजबूर कर देते लेकिन मुसलमानाने अहले सुन्नत व जमाअत और खुसूसन उल्माए अहले सुन्नत की बेदारी की दाद कौन दे सकता है 

जबकि इस नाबगए अस्र के इल्मी कारनामों और तहकीकी जवाहर रेजों को कमा हक्कहू महफूज़ भी नहीं किया और न यगानों और बेगानों को अपने इस मुहसिन की इल्मी अज़मत से आशना कराने की खास जहमत ही गवारा फ़रमाई है ।

 इस के बावजूद भी अगर आला हज़रत का नाम ज़िन्दा है तो सिर्फ उनके अज़ीम और जान्दार इल्मी कारनामों की वजह से ज़िन्दा है 

और इन्शाअल्लाह तआला आप का नाम कियामत तक ज़िन्दा व ताबिन्दा रहेगा क्योंकि । हरगिज़ नमीरद आंकि दिलश ज़िन्दा शुद बइशक सन्त अस्त बर जरीदए आलमे दवामे मा वफ़ात से कई माह पेशतर आप ने कोहे भुवाली पर 3 / रमज़ानुल मुबारक 1339 हि . को अपने विसाल की तारीख़ इस आयते करीमा से निकाली । 

" व युताफु अलैहिम बिआनियतिम मिन फिज़्ज़तिव्य अकबाव " यानी खुद्दाम चाँदी के बर्तन और आंजूरे लेकर ( जन्नत में ) उनके गिर्द घूम रहे हैं । 

इस शहीदे मोहब्बत ने अपना मिशन पूरा करके जुमअतुल मुबारक के रोज़ 25 / सफ़रूल मुज़फ्फर 1340 हि . / 1921 ई ० को दो बज कर अड़तीस मिनट पर , ऐन अज़ाने जुमा के वक्त हय्या अलल फलाह का नगमए जांफ़ज़ा सुन कर दाइए अजल को लब्बैक कहा और इस जहाने फानी से आलमे जाविदानी की तरफ सुधार गए । 

इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन । विसाल के दो घन्टे सत्तरह मिनट पहले तजहीज़ व तकफीन और बाज़ ज़रूरी उम्र के मुताल्लिक विसाया शरीफ़ कलमबन्द कराए जो चौदह अहम नकात पर मुश्तमिल हैं ।

 हज़रत मुहद्दिस किछौछवी रहमतुल्लाह अलैहि के पीर व मुर्शिद ने आला हज़रत के विसाल की खबर सुन कर फ़रमाया । रहमतुल्लाहि तआला अलैहि देखा गया कि इसमें विसाल की तारीख़ भी है । 

खुद हज़रत मुहद्दिस किछौछवी अलैहिर्रहमा ने तारीखे वफ़ात इमामुल हुदा अब्दुल मुस्तफा अहमद रज़ा निकाली थी । आला हज़रत अलैहिर्रहमा से फैज़ियाब होने वाले  खुश किसमत हज़रात की फेहरिस्त तो बड़ी तवील है जेल में आप के चन्द नामवर खुलफ़ा की फेहरिस्त पेश की जाती है । 
(1) हुज्जतुल इस्लाम मौलाना हामिद रज़ा खां , खलफे अकबर ( अलमुतवफ्फा 1392 हि . / 1943 ई ० ) (2)मुफ्तीए आज़मे हिन्द मौलाना मुस्तफा रज़ा खां , खलफे असगर मद्दा जिल्लहुल आली ( रौनक अफ़रोज़ बरैली शरीफ़ हैं ) 
(3)  सदरूश्शरीआ मौलाना अमजद अली आज़मी बरकाती मुसन्निफ़ बहारे शरीअत " ( अलमुतवफ्फा 1398 हि . / 1948 ई ० ) 
(4) सदरूल अफ़ाज़िल मौलाना नईमुद्दीन मुरादाबादी मुसन्निफ " ख़ज़ाइनुल इरफ़ान " ( अलमुतवफ्फा 1398 हि . / 1948 ई ० ) 
(5)  मुलेकुल उलमा मौलाना ज़फ़रूद्दीन बिहारी मुसन्निफ़ हयाते आला हज़रत " ( अलमुतवफ्फा 1382 हि . / 1992ई ० )
(6) मुहद्दिसे आज़म मौलाना शाह अहमद अशरफ़ जीलानी किछौछवी ( अलमुतवफ्फा 1344 हि . / 1925 ई ० ) 
(7) शैखुल मुहद्दिसीन मौलाना सैयद दीदार अली अलवरी बानी " हिज्बुल अहनाफ़ ” लाहौर ( अलमुतवफ़्फा 1352 हि . / 1933 ई ० ) 
(8)मुबल्लिगे इस्लाम मौलाना शाह अब्दुल अलीम सिद्दीकी मेरठी ( अलमुतवफ्फा 1373 हि . / 1952 ई ० )
(9)  हज़रत मौलाना अब्दुस्सलाम जबलपूरी ( अलमुतवफ्फा 1393 हि . / 1944 ई ० ) 
(10) सुल्तानुल वाइजीन मौलाना अब्दुल अहद पीलीभीती ( अलमुतवफ्फा 1348 हि . / 1929 ई ० ) 
(11) मौलाना हाजी लाल मुहम्मद खां मद्रासी 
(12) मौलाना मुहम्मद शफी अहमद बसील पूरी 
(13) मौलाना हसनैन रजा खां बरेलवी 
(14) मुफ्ती सी - पी- मौलाना बुरहानुल हक जबलपूरी (15) मौलाना रहीम बख्श आरवी शाहाबादी
(16) मौलाना अहमद मुख्तार सिद्दीकी मेरठी 
(17) मौलाना मुहम्मद शरीफ सियालकोटी ( कोटली लोहारां ) 
(18)  मौलाना इमामुद्दीन सियालकोटी ( कोटली लोहारां ) (19)  मौलाना उमर बिन अबू बकर खतरी , साकिन शहर पोरबंदर 
(20) मौलाना फ़तेह अली शाह पंजाबी ( खरोटा सैयदां ) 
(21)  मौलाना सैयद सुलैमान अशरफ़ बिहारी 
(22)  मौलाना मुफ्ती गुलाम जान हज़ारवी 
(23) मौलाना ज़ियाउद्दीन अहमद मुहाजिर मदनी मद्दा जिल्लहुल आली 
(24) मौलाना अबुल बर्कात सैयद अहमद शाह मद्दा जिल्लहुल आली ( नाज़िमे आला हिज्बुल अहनाफ- लाहौर ) 
(25) मौलाना सैयद अली अकबर शाह अलीपूरी 
(26) मौलान सैयद मुहम्मद अज़ीज़ गौस ( अलमुतवफ्फा 1393 हि . / 1943 ई ० ) 
(27)  मौलाना मुहम्मद इब्राहीम रज़ा खां उर्फ जीलानी मियां 
(28)  मौलाना सैयद गुलाम जान , जाम जोधपूरी 
(29) अल्लामा अबुल फैज़ कलन्दरी अली सुहरवरदी लाहौरी
( अलमुतवफ्फा 1378 हि . / 1959 ई ० ) 
(30)  मौलाना अहमद हुसैन अमरोहवी 
(31) मौलाना उमरूद्दीन हज़ारवी 
(32) मौलाना शाह मुहम्मद हबीबुल्लाह कादरी मेरठी 
(33) शैख़ मुहम्मद अब्दुल हई बिन सैयद अब्दुल कबीर मुहद्दिस ( अलमुतवफ्फा 1332 हि . / 1913 ई ० ) 
(34) मुफ्तीए अहनाफ व काज़ी मक्का मुकर्रमा , शैख़ सालेह कमाल ( अलमुतवफ्फा 1325 हि . / 1907 ई ० ) (35) मुहाफिजे कुतुबे हरम , सैयद इस्माईल बिन सैयद खलील मक्की ( अलमुतवफ्फा 1338 हि ० 1919 ई ० ) (36) सैयद मुस्तफा बिन सैयद खलील मक्की ( अलमुतवफ्फा 1339 हि . / 1920 ई ० ) 
(37) शैख आबिद बिन हुसैन मुफ्ती मालिकीया मक्की 
(38) शैख़ अली बिन हुसैन मालिकी मक्की 
(39) शैख अब्दुल्लाह बिन शैख़ अबिल खैर मिरदाद
(40) शैख़ अबू हुसैन मरजूकी 
(41) शैख़ मामूनुल बरी अल मदनी 
(42) शैख़ असद रेहान 
(43) शैख़ जमाल बिन मुहम्मदुलअमीर 
(44) शैख अब्दुर्रहमान दहलान 
(45) शैख़ बकर रफ़ी 
(46) शैख़ हसनुल अजमी 
(47) शैखुद्दलाइल सैयद मुहम्मद सईद 
(48) शैख़ उमर अलमहरूसी 
(49) शैख़ उमर बिन हमदान
(50) शैख़ अहमद ख़िज़रावी मक्की 
(51) शैखुल मशाइख अहमद बिन अबिल खैर मिरदाद 
(52) सैयद सालिम बिन ईद रूस 
(53) सैयद अलवी बिन हसन 
(54) सैयद अबू बकर बिन सालिम 
(55) शैख़ मुहम्मद उस्मान दहलान 
(56) शैख़ मुहम्मद यूसुफ 
(57) शैख़ अब्दुल कादिर कुरदी ( अलमुतवफ्फा 1349 हि . / 1927 ई ० ) 
(58) शैख़ मुहम्मद बिन सैय्यद अबू बक्र अर्रशीदी 
(59) शैख मुहम्मद सईद बिन सैयद मुहम्मद मरिरबी 
(60) शैख़ अब्दुल्लाह फ़रीद ( अलमुतवफ्फा 1335 हि . / 1919 ईस्वी ० ) 
(61) शैख़ अब्दुर्रहमान 
रहमतुल्लाहे तआला अलैहिम वै हस्तियां इलाही किस देस बस्तियां हैं अब देखने को जिन के आंखें तरसतियां है

Aalahazrat ki zindagi life of aalahazrat urse razvi2020 present 

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