walima kya hota hai walima ka bayan

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दावत ए वलीमा का बयान 

वलीमा करना सुन्नते मुअक्कदा है । ( जान बूझ कर वलीमा न करने वाला सख़्त गुनाहगार है । ) ( कीमियाए सआदत सफ़ा - 261 ) 


वलीमा ये है कि शबे जुफ़ाफ़ (सुहागरात / honeymoon) की सुबह को अपने दोस्त , अहबाब , अज़ीज़ व अकारिब और मुहल्ला के लोगों को हस्बे इस्तिताअत ( हैसीयत के मुताबिक ) दावत करें ।

 दावत करने वालों का मक़सद सुन्नत पर अमल करना हो न ये कि मेरी वाह वाह होगी । ( बहारे शरीअत जिल्द 2 हिस्सा - 16 सफा- 32 ) 

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हदीस :- हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रदि अल्लाहु अन्हु का बयान है कि मुझ से नबीए करीम स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया :

 वलीमा करो चाहे एक ही बकरी ज़बह हो । ( बुखारी शरीफ जिल्द - 3 बाब - 97 सफा - 85+ मुस्लिम शरीफ जिल्द -1 सफा- 458+ मोत्ता इमाम मालिक जिल्द -2 किताबुन्निकाह सफा - 432 ) 

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इस्तिताअ़त हो तो वलीमा में कम अज़ कम एक बकरी या एक बकरे का गोश्त ज़रूर हो कि सरकार अक़दस स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इसे पसंद फरमाया 

लेकिन अगर हैसियत न हो तो फिर अपनी हैसियत के मुताबिक किसी भी किस्म की खाना खिला सकते हैं कि इससे भी वलीमा अदा हो जाएगा । 


हदीस :- हज़रत सुफिया बिनते शीबा रदि अल्लाहु तआला अन्हा फ़रमाती हैं : 

 नबी ए करीम स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम ने अपनी बाज़ अजवाजे मुतहरात का वलीमा दो सेर जौ के साथ किया था। ( बुख़ारी शरीफ जिल्द - 3 बाब - 100 हदीस - 158 सफा - 87 )


 सय्यदना इमाम गज़ाली रदि अल्लाहु अन्हु कीमिया ए सआदत में इरशाद फरमाते हैं : वलीमा में ताख़ीर करना ठीक नहीं । अगर किसी शरई वजह से ताख़ीर हो जाए तो एक हफ्ते के अन्दर अन्दर वलीमा कर लेना चाहिए । इससे ज़्यादा दिन गुज़रने न पाएँ । ( कीमिया ए सआदत सफा - 261 ) 


मसला :- दावते वलीमा सिर्फ पहले दिन या उसके बाद दूसरे दिन करें यानी दो ही दिन तक ये दावत हो सकती है । उसके बाद वलीमा और शादी ख़त्म । ( बहारे शरीअन जिल्द -2 , हिस्सा - 16 सफा - 33 ) 


हदीसः- हज़रत इब्न मसऊद रदि अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबीए करीम स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया : 

पहले दिन का खाना ( यानी शब जुफ़ाफ़, सुहागरात, honeymoon के दूसरे रोज़ वलीमा करना ) हक़ है ( उसे करना ही चाहिए ) । 

दूसरे दिन का सुन्नत है और तीसरे दिन का खाना सुनाने और शोहरत के लिए है और जो कोई सुनाने के लिए काम करेगा , अल्लाह तआला उसे सुनाएगा ( यानी उसकी सज़ा मिलेगी ) । ( र्तिमिज़ी शरीफ जिल्द - 1 बाब - 746 हदीस -1089 सफा - 559+ अबूदाऊद शरीफ़ जिल्द - 3 बाब 131 हदीस- 349 सफा - 132 ) 



हदीस :- हज़रत कतादा रदि अल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं : हजरत सईद बिन मुसय्यब रदि अल्लाहु अन्हु को वलीमा में पहले रोज़ बुलाया गया तो दावत मंजूर फरमा ली । दूसरे रोज़ दावत दी गई

तब भी कुबूल फरमाई और तीसरे रोज़ बुलाया गया तो दावत मंजूर न की । बुलाने वाले को कंकरियाँ मारी और फरमायाः ये शेखी बघारने वाले और दिखावा करने वाले हैं ।  ( अबूदाऊद शरीफ जिल्द - 3 बाब - 131 हदीस - 349 सफा - 132 ) 

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दावत कुबूल करना 

दावत कुबूल करना सुन्नत है । बाज़ उलमा के नज़दीक दावत कुबूल करना वाजिब है । दोनों क़ौल है । 

बज़ाहिर ये मालूम होता है कि इजाबत सुन्नत मुअक्कदा है । वलीमा के सिवा दूसरी दावतों में भी जाना अफ़ज़ल है ( बहारे शरीअत जिल्द - 2 हिस्सा - 16 सफा - 32 )


 हदीस :- हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रदि अल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं । रसूलुल्लाह स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमायाः 

 जब तुम में से किसी को वलीमा खाने के लिए बुलाया जाए तो वह ज़रूर जाए । ( बुख़ारी शरीफ जिल्द - 3 सफा - 87 + मुस्लिम शरीफ जिल्द -1 मालिक जिल्द - 2 सफा - 434 ) 


हदीस :- हज़रत अबूहुरैरा रदि अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया : 

 जो दावत कुबूल कर के न जाए उसने अल्लाह तआला और उसके रसूल की नाफरमानी की । ( बुखारी शरीफ जिल्द - 3 बाब - 102 हदीस - 163 सफा - 35 + मुस्लिम शरीफ जिल्द -1 सफा - 462 ) 


हदीस :- हज़रत हमीद बिन अब्दुर्रहमान हुमैरी ने हुजूर स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम के एक सहाबी से रिवायत की कि नबी ए करीम स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया : 

 जब दो शख्स दावत देने एक ही वक़्त आऐं तो जिसका घर तुम्हारे घर से करीब हो उसकी दावत कुबूल करो और अगर एक पहले आया तो जो पहले आया उसकी दावत कुबूल करो । ( इमाम अहमद , अबू दाऊद शरीफ़ जिल्द - 3 बाब - 136 हदीस- 357 सफा - 134 ) 


बगैर दावत के दावत में जाना कैसा है?

दावत में बगैर बुलाए नहीं जाना चाहिए । आज कल आम तौर पर कई लोग दावतों में बिन बुलाए ही चले जाते हैं और उन्हें न ही शर्म आती है और न ही अपनी इज्ज़त का कुछ ख़्याल होता है । गोया ! मान न मान मैं तेरा मेहमान 


हदीस :- सरकारे मदीना स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमायाः  दावत में जाओ जब कि बुलाए जाओ  और फरमायाः

  जो बगैर बुलाए दावत में गया वह चोर हो कर दाखिल हुआ गारत गीरी कर के लुटेरे की सूरत में बाहर निकला ( यानी गुनाहों को साथ ले कर निकला ) । ( अबू दाऊद शरीफ जिल्द - 3 बाब - 127 हदीस - 342 सफा -130 ) 


बुरा वलीमा कौन सा है?

हदीस ए पाक में उस वलीमा को बहुत बुरा बाताया गया है जिसमें अमीरो को तो बुलाया जाए और गुरबा व मसाकीन को फरामोश कर दिया जाए ।

 ऐसी दावत यकीनन बहुत बुरी है जिसमें अमीरों की खातिर तवाजो खूब बढ़ चढ़ कर की जाए और गरीबों को नजर अंदाज़ कर दिया जाए या उन्हें हिकारत की नज़र से देखा जाए । 


हदीस :- हज़रत अबूहुरैरा रदि अल्लाहु तआला अन्हु रिवायत करते हैं कि रसूले अकरम स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया : 

सब से बुरा वलीमा का वह खाना है जिसमें अमीरों को तो बुलाया जाए और गरीबों को नज़र अंदाज़ कर दिया जाए । ( बुख़ारी शरीफ जिल्द - 3 हदीस - 163 सफा - 88+ मुस्लिम शरीफ जिल्द - 1 सफा - 462+ अबू दाऊद शरीफ जिल्द - 3 बाब - 127 हदीस- 343 सफा - 130 ) 

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आज कल मुसलमानों में एक और नई खुराफात पैदा हो चली है । वह कि दावत में दो किस्म के खाने होते हैं । सादा और कम लागत वाला खाना मुसलमानों के लिए और बेहतरीन किस्म के पकवान गैर मुस्लिम दोस्तों के लिए रखे जाते हैं । 

गैर मुस्लिम दावतों की ख़ातिर तावाजो में इस कदर किया जाता है कि पूछिये मत । 

अल्लाह रबुलइज्ज़त इरशाद फरमाता है : 

अल्लाह बेज़ार है मुशरिकों से और ( बेज़ार है ) उसका रसूल ( तर्जमा कंजुल ईमान पारा -10 सूरह तौबा रुकूअ - 7 आयत- 3 )


और फ़रमाता है अल्लाह तबारका व तआलाः 

 

ईमान वालो ! मुशरिक निरे नापाक हैं ।
( तर्जमा कंजुल ईमान पारा -10 सूरह तौबा रुकूअ - 10 आयत -28 ) 


हदीस :- अल्लाह के रसूल स्वलल्लाहो अलैही वसल्लम इरशाद फरमाते हैं : " जो काफ़िरों की ताज़ीम व तौकी़र करे यकी़नन उसने दीने इस्लाम को ढाने में मदद की । ( इब्न अदी + इब्न असाकर + तिबरानी + बै हक़ी + अबू नईम फिलहुल्लियत )


 बताइए जिन लोगों के मुतअल्लिक रसूल अल्लाह स्वलल्लाहो अलैहि वसल्लम के ये अहकाम हैं । उनकी ख़ातिर तवाज़ो में इस कदर मुबालगा करना और मुसलमानों को उनसे कम दर्जा में शुमार करना कहाँ तक सही है ? 


कुछ लोग कहते हैं : " साहब ! हम ऐसे मुल्क में रहते हैं । दिन रात उनके बीच उठना बैठना है । हमारे कारोबारी तअल्लुकात हैं , इसलिए ये सब कुछ करना ज़रूरी है । 

इसके जवाब में सिर्फ इतना ही कहूँगाः " ऐ मेरेरे भाई ! जरा ये तो बताइए कि क्या उमूमन ये गैर मुस्लिम भी ! अपनी शादी बियाह के मौका पर मुसलमानों के लिए अलग उन का पसंदीदा खाना रखते हैं ? 

जी नहीं ! तो फिर हम क्यों कुफ्फार से मसलिहत ( Comperomise ) करें । " यकीनन ऐसी दावत और ऐसे वलीमा का कोई सवाब नहीं मिलता जिसमें मुसलमानों से ज़्यादा कुफ्फार को अहमियत दी जाए ।

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