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हदीस की तारीफ़ और उसकी किस्में
हदीस कहते हैं हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की बात को वह खुल्लम - खुल्ला हो या हुक्मन - और उनके काम और उनकी तक़रीर को।
तक़रीर का मतलब यह है कि हुजूर सल्लल्लाह तआला अलैहि वसल्लम के सामने कोई काम किया गया और हुजूर ने उसे मना नहीं फ़रमाया ।
या सहाबा रज़ियल्लाहु तआला अनहुम में से किसी ने कोई बात कही और हुजूर ने उससे रोका नहीं बल्कि चुप रहे और अमलन उसे साबित फ़रमा दिया ।
इसी तरह हदीस का लफ़्ज़ ( शब्द ) बोला जाता है सहाबा रज़ियल्लाह तआला अनहुम की बात उनके काम और उनकी तक़रीर पर भी ।
सहाबी किसे कहते हैं ?
और सहाबी उनको कहते हैं कि जिनको ईमान की हालत में हुज़ूर सल्लल्लाहु त आला अलैहि वसल्लम देखा और ईमान पर ही उनका ख़ातिमा हुआ हो।
और इसी तरह हदीस का लफ़्ज़ बोला जाता है , ताबईन की बात , उनके काम और उनकी तक़रीर पर भी ,
ताबई किसे कहते हैं ?
ताबई उनको कहते हैं कि जिहोंने ईमान की हालत में किसी सहाबी से मुलाक़ात की और ईमान पर उनका खातिमा हुआ ( अन्नुखबतुन्नबहानिया )
इस लिहाज़ से हदीस की तीन कि़स्में हो गई जिसको हज़रत शैख अब्दुल हक्क़ मुहद्दिस देहलवी बुखारी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि ने यूं बयान फ़रमाया है।
हदीस की कितनी किस्में हैं और उनके नाम क्या हैं?
हदीस की तीन (3) किस्में हैं। जिस हदीस की रिवायत का सिलसिला हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहिवसल्लम तक पहुंचता है ।
सोहबत नसीब हुई उसे हदीसे मरफूअ़ कहते हैं और जिस हदीस की रिवायत का सिल सिला किसी सहाबी तक पहुँचता है उसे हदीसे मौकूफ़ कहते हैं।
और जिस हदीस की रिवायत का सिलसिला किसी ताबई तक पहुँचता है उसे हदीसे मक़तूअ कहते हैं ।
हदीस की हैसियत
यह बात बिल्कुल ज़ाहिर है कि शरीअत की तमाम बातों का पहला सर चश्मा कुरआन मजीद है कि वह खुदा की किताब है और कुरआन ही के हुक्म के मुताबिक हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्म की फ़रमाँ बरदारी और पैरवी भी हर मुसलमान के लिए ज़रुरी है।
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Hadis ki kismen |
कि बगैर उसके ख़ुदा के हुक्म की तफ़सील नहीं जान सकते और न कुरआन की आयत का मतलब समझ सकते हैं ।
इसलिए अब जरुरी तौर पर हदीस भी इस लिहाज़ से शरीअत के हुक्म की जड़ करार पा गई
कि वह हुजूर के हुक्म , उनके काम और कुरआन की आयतों का मतलब जानने का ज़रिआ है ।
अब आप कुरआन मजीद की उन आयतों का तर्जुमा पढ़ें जिनमें बिल्कुल खुल्लम - खुल्ला बार - बार हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की फरमा बरदारी और पैरवी का हुक्म दिया गया है ।
( 1 ) ऐ ईमान वालो ! अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँ बरदारी करो और रसूल से मुह न फेरो । ( पारा नम्बर 9 रुकूअ नम्बर 17 )
( 2 ) अल्लाह और उसके रसूल के हुक्म पर अमल करो और आपस में मत झगड़ो कि बिखर कर कमज़ोर हो जाओगे । ( पारा नम्बर 10 रुकूअ नम्बर 2 )
( 3 ) और हमने कोई रसूल नहीं भेजा मगर इसलिए ताकि अल्लाह के हुक्म से उसकी फरमा बरदारी की जाये । ( पारा नम्बर 5 रुकअ नम्बर 6 )
( 4 ) ऐ रसूल ! आप लोगों से कह दीजिए कि अगर तुम खुदा से दोस्ती का दम भरते हो तो मेरी पैरवी करो ख़ुदा तुम्हें अपना दोस्त बनाएगा । ( पारा नम्बर 3 रुकूअ नम्बर 12 )
( 5 ) आपके रब की कसम वह हरगिज़ मुसलमान नहीं हो सकते जब तक कि अपने उन मामलों में आपको अपना हाकिम (जज) न मान लें जिनमें उनके आपस का झगड़ा है । ( पारा नम्बर 5 रुकूअ नम्बर 6 )
( 6 ) अल्लाह और रसूल की फरमाँ बरदारी करो और उनके हुक्म पर अमल करो जो तुम में हुकूमत वाले हैं । फिर अगर तुम में किसी बात का झगड़ा उठे तो अल्लाह और रसूल की जानिब ले जाओ । ( पारा नम्बर 5 रुकूअ नम्बर 5 )
( 7 ) ऐ ईमान वालो ! अल्लाह की फ़रमाँ बरदारी करो और रसूल का हुक्म मानो और अपने अमल को बेकार न करो । ( पारा नम्बर 26 रुकूअ नम्बर 8 )
( 8 ) जिसने रसूल की फ़रमाँ बरदारी की तो बेशक उसने अल्लाह की फ़रमाँ बरदारी की । ( पारा नम्बर 5 रुकूअ नम्बर 8 )
( 9 ) ऐ रसूल ! तुम कह दो कि अल्लाह और रसूल की फ़रमाँ बरदारी करो । फिर अगर वह मुंह फेरें तो अल्लाह काफिरों को पसंद नहीं करता । ( पारा नम्बर 3 रुकूअ नम्बर 12 )
( 10 ) कुछ रसूल तुम्हें दें उसे ले लो और जिससे मना करें उससे रुक जाओ और अल्लाह से डरो । बेशक अल्लाह का अज़ाब सख्त है । ( पारा नम्बर 28 रुकूअ नम्बर 4 )
( 11 ) बेशक तुम्हें रसूलुल्लाह की पैरवी बेहतर है । ( पारा नम्बर 21 रुकूअ नम्बर 19 )
कुरआन मजीद की इन आयतों से खुल्लम - खुल्ला साबित हो गया कि मुसलमानों के लिए हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की फ़रमाँ बरदारी जुरुरी है ।
लिहाज़ा इस लिहाज़ से हुजूर के हुक्म पर हमें इस तरह अमल करना जुरुरी है जिस तरह कुआन के ज़रिए हम तक पहुँचने वाले खुदा के किसी हुक्म पर अमल करना जरुरी है।
इसलिए कि रसूल का हुक्म भी एक वास्ता से ख़ुदा ही का . हुक्म है ।
एक सवाल
यह बात अच्छी तरह समझ लेने के बाद एक सवाल पर गौर कीजिए और वह यह है कि कुरआन की आयतों में हुजूर सल्लल्लाह तआला अलैहि वसल्लम के हुक्म पर अमल करने और उनको पैरवी करने का जो बार - बार हुक्म दिया गया है तो क्या यह हुक्म हुज़र की सिर्फ़ ज़ाहिरी ज़िन्दगी तक है या कियामत तक के लिए ?
अगर मआज़ ल्लाह ख़ुदा के इस हुक्म को हुजूर की ज़ाहिरी ज़िन्दगी के साथ ख़ास कर दिया जाये तो दूसरे शब्दों में उसका साफ़ और खुल्लम - खुल्ला मतलब यह होगा कि कुआन और इस्लाम पर अमल करने का ज़माना भी हुजूर की ज़ाहिरी ज़िन्दगी ही तक है।
इसलिए कि हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के हुक्म पर अमल और उनके कामों की पैरवी लाज़िम ही इसलिए थी कि बगैर उसके कुरआन व इस्लाम की सारी बातों को नहीं समझ सकते थे ।
और न उन पर अमल ही कर सकते थे लेकिन जब कुरआन और इस्लाम पर अमल करने का हुक्म कियामत तक के लिए है तो साबित हुआ कि हुजूर की फ़रमा बरदारी और उनकी पैरवी का हुक्म भी कियामत तक के लिए है ।
हदीस शरीफ़ का हुज्जत होना
जब यह बात त हो गई कि कुरआन और इस्लाम पर अमल करने का हुक्म क़यामत तक के लिए है और यह भी तैय हो गया कि कुरआन व इस्लाम की सारी बातों का जानना और उन पर अमल करना हुजूर की फरमा बरदारी के बगैर नहीं हो सकता।
तो एक दूसरा सवाल यह है कि " डिक्सनरी " आम बोल चाल ' अक्ल और शरीअत की रु से फ़रमॉ बरदारी हमेशा हुक्म की होती है।
तो आज हुजूर के वह हुक्म कहाँ हैं जिन पर अमल करने के लिए कुरआन हमसे बार - बार कहता है ।
इसलिए कि हुक्म के बगैर अमल करने के लिए कहना बिल्कुल अक्ल और शरीअत के ख़िलाफ़ है ।
तो जब आज भी कुरआन हम से हुजूर के हुक्म पर अमल करने के लिए कहता है।
तो मानना पड़ेगा कि आज हमारे सामने हुजूर के हुक्म का होना भी ज़ुरूरी है।
और ज़ाहिर है कि हुजूर के हुक्म का मतलब वह हुक्म नहीं है जो ख़ुदा की तरफ़ से कुरआन में है ।
इसलिए कि ख़ुदा का हुक्म होने की हैसियत से उन पर अमल का जुरुरी होना हमारे लिए बहुत काफ़ी है ।
इसलिए मानना पड़ेगा कि रसूल के जिन हुक्मों पर अमल करने का हम को हुक्म दिया गया है वह कुरआन मजीद के हुक्म के इलावा हैं ।
इतना समझ लेने के बाद अब यह बताने की ज़रुरत नहीं रही कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहुतआला अलैहिवसल्लम के हुक्म और कुरआन व इस्लाम की तफ़सीर का नाम हदीस है ।
यहीं से हदीस की जरुरत और उसकी इस्लामी हैसियत अच्छी तरह ज़ाहिर हो गई ।
हदीस की जुरुरत से वही शख़्स इनकार कर सकता है जिसे रसूल की फ़रमाँ बरदारी से बिल्कुल इनकार हो ।
रिवायत को जरुरत
सहाब ए किराम जिनको हुजूर सल्लल्लाहुतआला अलैहि व सल्लम के अमल को अपनी आँखों से देखने और उनके हुक्म को अपने कानों से सुनने का मौका मिला था।
उन्हें शरीअत की बातों को जानने के लिए रिवायत के वास्तों की बिल्कुल जरुरत नहीं थी लेकिन बाद के लोगों को अपने रसूल के अमल और उनकी बात से आगाह होने का ज़रिया सिवाय रिवायत के और क्या था ?
-यहीं से यह बात भी मालूम हो गई कि हुजूर के अमल उनकी बात और उनकी हालतों से आने वाली उम्मत को आगाह करने के लिए रिवायत की जरुरत क्यु हुई ?
तो इस उम्मत के जिन लोगों ने हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम को खुद अपनी आंखों से देखा और अपने कानों से सुना वह लोग “ सहाबा " के नाम से याद किये जाते हैं।
और हुजूर के विसाल फरमाने के बाद
सहाब ए किराम ने जिन लोगों तक हुजूर के अमल और उनकी बातों को पहुँचाया वह " ताबईन " कहे जाते हैं।
और ताबईन ने हुजूर की बातों को जिन लोगों तक पहुंचाया उनको तबे ताबईन के लक़ब से याद किया जाता है ।
फिर उन लोगों ने अपने ज़माने के लोगों को पहुँचाया फिर सीना दर सीना , नस्ल दर नस्ल और गिरोह दर गिरोह रिवायतों का यह सिलसिला आगे बढ़ता रहा ।
यहाँ तक हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहिवसल्लम के अमल , उनकी बातें , उनकी हालत और उनकी तक़रीरें हदीस की बड़ी - बड़ी किताबों में जमा होकर हम चौदा सौ (1400) साल बाद पैदा होने वाले तक पहुंची ।
तो रहमत व नूर की मूसलाधार बारिश हो हदीस की रिवायत करने वाले उस मुक़द्दस गिरोह पर जिसके खुलूस व अहसान , मेहनत व जफ़ा कशी , बराबर सफर , लगातार कुर्बानी और मुसलसल कोशिश के ज़रिए
आकाए दो आलम सल्लल्लाहुतआला अलैहिव सल्लम की मुबारक ज़िन्दगी का एक शफ़्फ़ाफ़ आईना हमें हासिल हुआ ।
इतना शफ़्फ़ाफ़ कि अकी़दत की आँख खोलते ही उस मुबारक जमाना में पहुँच जाइए ।
जहाँ कदम - कदम पर हज़रत जिबरील अलैहिस्सलाम की आवाज़ सुनाई देती है ।
दोपहर के सूरज की बात क्या कहिए रात को भी जलवों का सवेरा है ।
हर तरफ़ मलकूतियों का डेरा है ' आसमानों के पट खुले और बंद हुए नूरानी काफ़िले उतरे और चले गये ' अर्श से फ़र्श तक नूर व तजल्ली का ताँता बँधा हुआ है ।
' जलवों की बारिश से तैबा की ज़मीन इतनी नम हो गई है कि निचोडि़ए तो कौसर का धारा फूट पड़े ' मुल्के रिसालत के सुलताने आज़म कभी मस्जिद के आँगन में कभी हज़रते आइशा रज़ियल्लाहुतआला अनहा के हुजरा में ।
' कभी अपने दिवानों का काफ़िला लिए हुए जंगलों , पहाड़ों और रेतीले मैदानों से गुज़र रहे हैं ।
और कभी मुनाजात से उम्मत की तक़दीर संवार रहे हैं कभी इन्तिहाई गम से आँखें भीग गई और कभी मुस्कराहट से गुन्चे खिला दिए ।
बागीचों की तरफ निकल गए तो आप की खुशबू से रासते महक उठे और अब रहमत के कमरा में तशरीफ रखे हैं , तो हर तरफ चेहरए अनवर का उजाला है ।
अभी आशिकों की महफिल में हकीकत व मारिफ़त के मोती लुटा रहे हैं ।
और अब देखिए तो मैदाने जंग में वफ़ादारों को हमेशा सुख चैन से रहने की खुश खबरी दे रहे हैं ।
ग़रज़ हदीस की किताबों का जो पन्ना उलटिए अक्षरों के शोशे में हुजूर सल्लल्लाहुतआला अलैहि वसल्लम की ज़िन्दगी का एक - एक हिस्सा नज़र आता है ।
जिन लोगों के दिल हुजूर की मोहब्बत से खाली हैं वह जलवए महबूब के उस जमाल व कमाल के शीशे को तोड़ भी दें तो उन्हें उसका कलक ही क्या ?
कि उनके पास मोहब्बत वाला दिल ही नहीं है ।
लेकिन आशिकों से पूछिए जो मदीना शरीफ़ की मिट्टी को सिर्फ इसलिए अपनी आँखों से लगा लेते हैं कि शायद हुज़र के पैर मुबारक से यह छू गई हो तो हदीस की किताबों में उनकी आँखों की ठंडक और दिल की तसकीन के क्या - क्या सामान हैं । (अनवारुल हदीस)
हदीस का मतलब मेरे दोस्तो शायद समझ पाये हों इस पोस्ट के जरिए आइन्दा भी ऐसी ही बेहतरीन पोस्ट पढ़ने के लिए infomgm Blog को subscribe कर लें और अपनो के साथ शेयर करके हजारों नेकिया कमाये।
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hadees kee taareef aur usakee kismen
hadees kahate hain hujoor sallallaahu taaala alaihi vasallam kee baat ko vah khullam - khulla ho ya hukman - aur unake kaam aur unakee taqareer ko.
taqareer ka matalab yah hai ki hujoor sallallaah taaala alaihi vasallam ke saamane koee kaam kiya gaya aur hujoor ne use mana nahin faramaaya .
ya sahaaba raziyallaahu taaala anahum mein se kisee ne koee baat kahee aur hujoor ne usase roka nahin balki chup rahe aur amalan use saabit farama diya .
isee tarah hadees ka lafz ( shabd ) bola jaata hai sahaaba raziyallaah taaala anahum kee baat unake kaam aur unakee takareer par bhee .
aur sahaabee unako kahate hain ki jinako eemaan kee haalat mein huzoor sallallaahu ta aala alaihi vasallam dekha aur eemaan par hee khaatima hua .
aur isee tarah hadees ka lafz bola jaata hai , taabeen kee baat , unake kaam aur unakee takareer par bhee , taabee unako kahate hain ki jihonne eemaan kee haalat mein kisee sahaabee se mulaaqaat kee aur eemaan par unaka khaatima hua ( annukhabatunnabahaaniya )
is lihaaz se hadees kee teen kismen ho gaee jisako hazarat shaikh abdul hakq muhaddis dehalavee bukhaaree rahamatullaahi taaala alaihi ne yu bayaan faramaaya hai ki jis hadees kee rivaayat ka silasila hujoor sallallaahu taaala alaihivasallam tak pahunchata hai .
suhabat naseeb huee use hadeese maraphoo kahate hain aur jis hadees kee rivaayat ka sil sila kisee sahaabee tak pahunchata hai use hadeese maukoof kahate hain.
aur jis hadees kee rivaayat ka silasila kisee taabee tak pahunchata hai use hadeese maqatoo kahate hain .
hadees kee haisiyat
yah baat bilkul zaahir hai ki shareeat kee tamaam baaton ka pahala sar chashma kuraan majeed hai ki vah khuda kee kitaab hai aur kuraan hee ke hukm ke mutaabik hujoor sallallaahu taaala alaihi vasalm kee faramaan baradaaree aur pairavee bhee har musalamaan ke lie zaruree hai.
ki bagair usake khuda ke hukm kee tafaseel nahin jaan sakate aur na kuraan kee aayat ka matalab samajh sakate hain .
isalie ab jaruree taur par hadees bhee is lihaaz se shareeat ke hukm kee jad karaar pa gaee
ki vah hujoor ke hukm , unake kaam aur kuraan kee aayaton ka matalab jaanane ka zaria hai .
ab aap kuraan majeed kee un aayaton ka tarjuma padhen jinamen bilkul khullam - khulla baar - baar hujoor sallallaahu taaala alaihi vasallam kee pharamaabaradaaree aur pairavee ka hukm diya gaya hai .
( 1 ) ai eemaan vaalo ! allaah aur usake rasool kee faramaan baradaaree karo aur rasool se muh na phero . ( paara nambar 9 rukoo nambar 17 )
( 2 ) allaah aur usake rasool ke hukm par amal karo aur aapas mein mat jhagado ki bikhar kar kamazor ho jaoge . ( paara nambar 10 rukoo nambar 2 )
( 3 ) aur hamane koee rasool nahin bheja magar isalie taaki allaah ke hukm se usakee pharama baradaaree kee jaaye . ( paara nambar 5 ruk nambar 6 )
( 4 ) ai rasool ! aap logon se kah deejie ki agar tum khuda se dostee ka dam bharate ho to meree pairavee karo khuda tumhen apana dost banaega . ( paara nambar 3 rukoo nambar 12 )
( 5 ) aapake rab kee kasam vah haragiz musalamaan nahin ho sakate jab tak ki apane un maamalon mein aapako apana haakim (jaj) na maan len jinamen unake aapas ka jhagada hai . ( paara nambar 5 rukoo nambar 6 )
( 6 ) allaah aur rasool kee pharamaan baradaaree karo aur unake hukm par amal karo jo tum mein hukoomat vaale hain . phir agar tum mein kisee baat ka jhagada uthe to allaah aur rasool kee jaanib le jao . ( paara nambar 5 rukoo nambar 5 )
( 7 ) ai eemaan vaalo ! allaah kee faramaan baradaaree karo aur rasool ka hukm maano aur apane amal ko bekaar na karo . ( paara nambar 26 rukoo nambar 8 )
( 8 ) jisane rasool kee faramaan baradaaree kee to beshak usane allaah kee faramaan baradaaree kee . ( paara nambar 5 rukoo nambar 8 )
( 9 ) ai rasool ! tum kah do ki allaah aur rasool kee faramaan baradaaree karo . phir agar vah munh pheren to allaah kaaphiron ko pasand nahin karata . ( paara nambar 3 rukoo nambar 12 )
( 10 ) kuchh rasool tumhen den use le lo aur jisase mana karen usase ruk jao aur allaah se daro . beshak allaah ka azaab sakht hai . ( paara nambar 28 rukoo nambar 4 )
( 11 ) beshak tumhen rasoolullaah kee pairavee behatar hai . ( paara nambar 21 rukoo nambar 19 )
kuraan majeed kee in aayaton se khullam - khulla saabit ho gaya ki musalamaanon ke lie hujoor sallallaahu taaala alaihi vasallam kee faramaan baradaaree jururee hai .
lihaaza is lihaaz se hujoor ke hukm par hamen is tarah amal karana jururee hai jis tarah kuaan ke zarie ham tak pahunchane vaale khuda ke kisee hukm par amal karana jaruree hai.
isalie ki rasool ka hukm bhee ek vaasta se khuda hee ka . hukm hai .
ek savaal
yah baat achchhee tarah samajh lene ke baad ek savaal par gaur keejie aur vah yah hai ki kuraan kee aayaton mein hujoor sallallaah taaala alaihi vasallam ke hukm par amal karane aur unako pairavee karane ka jo baar - baar hukm diya gaya hai to kya yah hukm huzar kee sirf zaahiree zindagee tak hai ya kiyaamat tak ke lie ?
agar maaaz llaah khuda ke is hukm ko hujoor kee zaahiree zindagee ke saath khaas kar diya jaaye to doosare shabdon mein usaka saaf aur khullam - khulla matalab yah hoga ki kuaan aur islaam par amal karane ka zamaana bhee hujoor kee zaahiree zindagee hee tak hai.
isalie ki hujoor sallallaahu taaala alaihi vasallam ke hukm par amal aur unake kaamon kee pairavee laazim hee isalie thee ki bagair usake kuraan va islaam kee saaree baaton ko nahin samajh sakate the .
aur na un par amal hee kar sakate the lekin jab kuraan aur islaam par amal karane ka hukm kiyaamat tak ke lie hai to saabit hua ki hujoor kee farama baradaaree aur unakee pairavee ka hukm bhee kiyaamat tak ke lie hai .
hadis shareef ka hujjat hona
jab yah baat ta ho gaee ki kuraan aur islaam par amal karane ka hukm qayaamat tak ke lie hai aur yah bhee taiy ho gaya ki kuraan va islaam kee saaree baaton ka jaanana aur un par amal karana hujoor kee pharamaabaradaaree ke bagair nahin ho sakata.
to ek doosara suvaal yah hai ki " diksanaree " aam bol chaal akl aur shareeat kee ru se faramo baradaaree hamesha hukm kee hotee hai.
to aaj hujoor ke vah hukm kahaan hain jin par amal karane ke lie kuraan hamase baar - baar kahata hai .
isalie ki hukm ke bagair amal karane ke lie kahana bilkul akl aur shareeat ke khilaaf hai .
to jab aaj bhee kuraan ham se hujoor ke hukm par amal karane ke lie kahata hai.
to maanana padega ki aaj hamaare saamane hujoor ke hukm ka hona bhee zurooree hai.
aur zaahir hai ki hujoor ke hukm ka matalab vah hukm nahin hai jo khuda kee taraf se kuraan mein hai .
isalie ki khuda ka hukm hone kee haisiyat se un par amal ka jururee hona hamaare lie bahut kaafee hai .
isalie maanana padega ki rasool ke jin hukmon par amal karane ka ham ko hukm diya gaya hai vah kuraan majeed ke hukm ke ilaava hain .
itana samajh lene ke baad ab yah bataane kee zarurat nahin rahee ki rasoolullaah sallallaahutaala alaihivasallam ke hukm aur kuraan va islaam kee tafaseer ka naam hrdees hai .
yaheen se hadees kee jururat aur usakee islaamee haisiyat achchhee tarah zaahir ho gaee .
hadees kee jururat se vahee shakhs inakaar kar sakata hai jise rasool kee faramaan baradaaree se bilkul inakaar ho .
rivaayat ko jururat
sahaab e kiraam jinako hujoor sallallaahutaala alaihi va sallam ke amal ko apanee aankhon se dekhane aur unake hukm ko apane kaanon se sunane ka mauka mila tha.
unhen shareeat kee baaton ko jaanane ke lie rivaayat ke vaaston kee bilkul jarurat nahin thee lekin baad ke logon ko apane rasool ke amal aur unakee baat se aagaah hone ka zariya sivaay rivaayat ke aur kya tha ?
-yaheen se yah baat bhee maaloom ho gaee ki hujoor ke amal unakee baat aur unakee haalaton se aane vaalee ummat ko aagaah karane ke lie rivaayat kee jarurat kyu huee ?
to is ummat ke jin logon ne hujoor sallallaahu taaala alaihi va sallam ko khud apanee aankhon se dekha aur apane kaanon se suna vah log “ sahaaba " ke naam se yaad kiye jaate hain.
aur hujoor ke visaal pharamaane ke baad
sahaab e kiraam ne jin logon tak hujoor ke amal aur unakee baaton ko pahunchaaya vah " taabeen " kahe jaate hain.
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yahaan tak hujoor sallallaahu taaala alaihivasallam ke amal , unakee baaten , unakee haalat aur unakee taqareeren hadees kee badee - badee kitaabon mein jama hokar ham chauda sau saal baad paida hone vaale tak pahunchee .
to rahamat va noor kee moosalaadhaar baarish ho hadees kee rivaayat karane vaale us muqaddas giroh par jisake khuloos va ahasaan , mehanat va jafa kashee , baraabar saphar , lagaataar kurbaanee aur musalasal koshish ke zarie
aakae do aalam sallallaahutaala alaihiv sallam kee mubaarak zindagee ka ek shaffaaf aaeena hamen haasil hua .
itana shaffaaf ki akeedat kee aankh kholate hee us mubaarak jamaana mein pahunch jaie .
jahaan kadam - kadam par hazarat jibareel alaihissalaam kee aavaaz sunaee detee hai .
dopahar ke sooraj kee baat kya kahie raat ko bhee jalavon ka savera hai .
har taraf malakootiyon ka dera hai aasamaanon ke pat khule aur band hue nooraanee kaafile utare aur chale gaye arsh se farsh tak noor va tajallee ka taanta bandha hua hai .
jalavon kee baarish se taiba kee zameen itanee nam ho gaee hai ki nichodie to kausar ka dhaara phoot pade mulke risaalat ke sulataane aazam kabhee masjid ke aangan mein kabhee hazarate aaisha raziyallaahutaala anaha ke hujara mein .
kabhee apane divaanon ka kaafila lie hue jangalon , pahaadon aur reteele maidaanon se guzar rahe hain .
aur kabhee munaajaat se ummat kee taqadeer sanvaar rahe hain kabhee intihaee gam se aankhen bheeg gaee aur kabhee muskaraahat se gunche khila die .
baageechon kee taraph nikal gae to aap kee khushaboo se raasate mahak uthe aur ab rahamat ke kamara mein tashareeph rakhe hain , to har taraph chehare anavar ka ujaala hai .
abhee aashikon kee mahaphil mein hakeekat va maarifat ke motee luta rahe hain .
aur ab dekhie to maidaane jang mein vafaadaaron ko hamesha sukh chain se rahane kee khush khabaree de rahe hain .
garaz hadees kee kitaabon ka jo panna ulatie aksharon ke shoshe mein hujoor sallallaahutaala alaihivasallam kee zindagee ka ek - ek hissa nazar aata hai .
jin logon ke dil hujoor kee mohabbat se khaalee hain vah jalave mahaboob ke us jamaal va kamaal ke sheeshe ko tod bhee den to unhen usaka kalak hee kya ?
ki unake paas mohabbat vaala dil hee nahin hai .
lekin aashikon se poochhie jo madeena shareef kee mittee ko sirph isalie apanee aankhon se laga lete hain ki shaayad huzar ke pair mubaarak se yah chhoo gaee ho to hrdees kee kitaabon mein unakee aankhon kee thandak aur dil kee tasakeen ke kya - kya saamaan hain .
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Praise and Varieties of Hadith
The Hadith says that Huzoor sallallaahu taala alaihi wa sallam is open to him - be it open or ruling - and his deeds and his destiny.
Taqeer means that some work was done in front of Huzoor sallallaa alaihi wa sallam and he did not refuse it.
Or one of the Sahaba Raziallahu Ta'ala Anhum said something and the Huzur did not stop him but kept quiet and proved it.
Similarly, the word (word) of the hadith is said to speak of Sahaba Raziallah Ta'ala Anhum on his work and also his manner.
And the Sahabis tell those who have seen Huzur Sallallahu ta Aala Alaihi Wasallam in the state of faith and were destroyed by faith.
And in the same way the words of the hadith are spoken about the Tabain, his deeds and his conduct, the Tabai tell those who met a Sahabi in the state of faith and they were destroyed by faith (Annukhbatunbahaniya).
In this sense, there are three types of hadith, which Hazrat Shaykh Abdul Haqq Muhaddis Dehlvi Bukhari Rahmatullahi ta'alayhi has narrated that the sequence of the narration of the hadith reaches to Huzur Sallallahu 'alaihiwa sallam.
Good luck, that hadeeth is called Marfoo'ah and the story of the Hadith whose narration reaches to a fellow is called hadeeth Maquf.
And the hadith, the series of narration of which reaches a tabi, is called hadeeth maqtua.
status of hadith
It is quite clear that the first head of all the things of Shari'ah is the Qur'an Majeed that it is a book of God and according to the order of the Qur'an itself, the obedience and obedience of Huzur Sallallahu Ta'ala Alaihi Wasalm is also necessary for every Muslim.
That without it one cannot know the details of the commandment of God and cannot understand the meaning of the verses of the Qur'an.
Therefore, the hadith has now essentially been found to be the root of the Shariat's ruling in this respect.
That it is the means of knowing the Huzoor's orders, their deeds and the meaning of the verses of the Qur'an.
Now you should read the pattern of those verses of the Qur'an Majeed in which it has been openly and repeatedly ordered to obey and advocate Huzoor Sallallahu Ta'ala Alaihi Wasallam.
(1) O you who believe! Be respectful to Allah and His Messenger and do not turn your back on the Messenger. (para number 9 rukua number 17)
(2) Follow the orders of Allah and His Messenger and do not quarrel with each other that you will be weakened by disintegration. (para number 10 rukua number 2)
(3) And We did not send any messenger, but so that by the order of Allah, he might be honored. (para number 5 stop number 6)
(4) O Messenger! Tell people to you that if you have the courage of friendship with God, then follow me, God will make you his friend. (para number 3 rukua number 12)
(5) By the oath of your Lord, he cannot be a Muslim unless he accepts you as his judge in matters in which there is a dispute between them. (para number 5 rukua number 6)
(6) Be respectful of Allah and the Messenger and obey the orders of those who rule among you. Then if any dispute arises between you, then take the life of Allah and the Messenger. (para number 5 rukua number 5)
(7) O you who believe! Be kind to Allah and obey the Messenger and don't waste your actions. (para number 26 rukua number 8)
(8) Whoever performed the duty of the Messenger, surely he did the duty of Allah. (para number 5 rukua number 8)
(9) O Messenger! You say that do the mercy of Allah and the Messenger. Then if he turns his back, then Allah does not like the disbelievers. (para number 3 rukua number 12)
(10) Take what the Messenger gives you, and stop what you disbelieve and fear Allah. Surely the punishment of Allah is severe. (para number 28 rukua number 4)
(11) Surely it is better for you to follow Rasulullah. (para number 21 rukua number 19)
These verses of the Qur'an Majeed have clearly proved that the order of Huzur Sallallahu Ta'ala Alaihi Wasallam is a necessity for the Muslims.
Therefore, in this sense, we have to follow Huzoor's order in the same way as it is necessary to follow any order of God who reaches us through the Kuan.
Because the order of the Messenger is also related to God. There is an order.
A Question
Having understood this very well, consider a question and that is that in the verses of the Qur'an, the order to follow and follow the orders of Huzoor sallalla alaihi wa sallam, which has been given time and again, is this ruling? Is it only for apparent life or till death?
If this order of Allah Allah is made special with the visible life of the Huzoor, then in other words its clear and open meaning will be that the time of practicing Qa'an and Islam is also up to the visible life of the Huzoor.
Because following the orders of Huzoor sallallaahu 'alayhi wa sallam and advocating for his actions was mandatory because without him one could not understand all the things of the Qur'an and Islam.
Nor could they have implemented them, but when the order to follow the Qur'an and Islam is even for the Qiyamat, then it has been proved that the order of Huzoor's Bardari and his advocacy is also for the Qiyamat.
Hrdos Sharif to be proud
When it was decided that the order to follow the Qur'an and Islam is up to the Qayamat and it was also decided that knowing and implementing all the things of the Qur'an and Islam cannot be done without the permission of Huzoor.
So a second question is that "Dictionary" Aam Bol Chaal, 'Aqal and Shari'a's rules are always dictated by the rules.
So where are those orders of Huzoor today, which the Qur'an repeatedly tells us to follow.
Because asking to act without a command is absolutely against the wisdom and the Shari'a.
So when even today the Qur'an asks us to follow the orders of Huzoor.
So we have to admit that today it is also necessary to have Huzoor's order in front of us.
And it is clear that Huzoor's ruling does not mean the order which is from God in the Qur'an.
For it is enough for us to be obliged to follow them as God's commandments.
Therefore, we have to believe that the orders of the Messenger, which we have been ordered to follow, are in addition to the orders of the Qur'an Majeed.
Having understood this, now there is no need to mention that the name of the order of Rasulullah Sallallahu'ala Alaihiwa Sallam and the Tafseer of the Qur'an and Islam is Hridis.
It was from here that the necessity of the hadith and its Islamic status became very clear.
The need of the hadith can be denied by the same person who completely disobeys the bardari of the Messenger.
need to narrate
Sahab-e-Kiram, who had the opportunity to see with his own eyes the execution of Huzur Sallallahu 'ala 'alaihi wa sallam and hear his orders with his ears.
They did not need any rite of passage to know the things of the Shari'ah, but what was the means for the later people to follow their Messenger and be warned about his words, except through rites?
It was also known from here that why there was a need for a narration to warn the coming Ummah of Huzur's execution, his words and his conditions?
So the people of this Ummah who saw Huzur Sallallahu 'alayhi wa sallam with their own eyes and heard them with their own ears, they are remembered by the name of "Sahaba".
And after Huzoor's blessing
The people to whom Sahab-e-Kiram conveyed Huzur's actions and his words are called "Tabayin".
And the people to whom Tabain conveyed the words of Huzur are remembered by the title of Tabain.
Then those people transported the people of their time, then sewa after sewa, race after race and gang after gang, this process of rituals continued.
Even the deeds of Huzur Sallallahu Ta'ala 'alaihiwasallam, his words, his condition and his tales were accumulated in the great books of hadith and reached us who were born after four hundred years.
So let the torrential rain of Rahmat and Noor be upon the group who narrates the hadith, through their revelations and favours, hard work and sacrifices, equal travel, constant sacrifices and concerted efforts.
Aakay do Alam sallallahutala 'alayhiv sallam's happy life, we have got a shuffaf mirror.
So much so that as soon as you open your eyes of faith, you reach that happy era.
Where the voice of Hazrat Jibril Alaihis Salam is heard every step of the way.
What to say about the midday sun, it is the dawn of water even at night.
There is a camp of Malkutis everywhere, 'The doors of the skies opened and closed Noorani convoys descended and left' From the floor to the floor, Noor and Tjalli are tied.
' The land of Taiba has become so moist due to the rain of water that if you squeeze, the stream of Kausar bursts ' Sultane Azam of Mulke Risalaat, sometimes in the courtyard of the mosque, in the Hujra of Hazrat Aisha Raziallahutala Anha.
Sometimes the convoy of his lovers is passing through forests, mountains and sandy plains.
And sometimes the fortunes of the Ummah have been decorated with the Munajat, sometimes the eyes were wet with sorrow and sometimes they fed them with a smile.
When you went towards the gardens, you smelled the fragrance of the way and now you have kept the glory in the room of mercy, then there is light of Anwar everywhere.
Right now, in the gathering of lovers, pearls of reality and death are being spent.
And now look, we are giving happy news to the faithful to always live in peace in the battle of the plains.
A part of the life of Huzur Sallallahu'ala 'alaihiwasallam is seen in the show of reversed letters from the books of Ghaz Hadith.
Those people whose hearts are empty of Huzoor's love, even if they break that wonderful and wonderful glass of Mehboob, then what should be their taint?
That they don't have a loving heart.
But ask the lovers who apply the mud of Medina Sharif with their eyes just because the feet of Huzar might have touched it with Mubarak, then what are the coolness of their eyes and the feeling of heart in the books of Heart.
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