karbala kee jang kyon huee

karbala kee jang kyon huee कर्बला की जंग क्यों हुई Why did the battle of Karbala happen?

कर्बला का युद्ध क्यों हुआ ? 

हुसैन की हत्या कैसे हुई ? 

कर्बला का अर्थ क्या है ? 

कर्बला किसका प्रतीक है ?

karbala ka yuddh kyon hua ?

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karbala ka arth kya hai ?

karbala kisaka prateek hai ?

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 इस्लाम जम्हूरियत ( प्रजातन्त्र ) का हामी है । हक के लिए आवाज बुलन्द करना और इस्लामी शरीअत की हिफाजत के लिए अपना तन - मन - धन कुर्बान कर देना खानदाने रसूल की खूबी है । 

कर्बला के मैदान में हज़रत इमाम हुसैन और आपके साथियों की शहादत इस हकीकत का सबूत है । 

हज़रत अमीर मुआविया दमिश्क में रहकर हुकूमत फरमाया करते थे । 

22 रजब सन् 60 हिजरी को वहीं इन्तेकाल फ़रमाया । 

इन्तेकाल से पहले आपने वसीयत फ़रमायी कि मेरे पास मेरे आका स्वल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पांच तबर्रुकात हैं जिन्हें मैंने जिन्दगी भर बड़ी हिफाजत से रखा है । 

सरकार का तहबन्द , चादर शरीफ़ , कमीज़ , और काटे हुए नाखून और मूए मुबारक के चन्द टुकड़े । 

मुझे इन्हीं कपड़ों का कफ़न दिया और जाए और आंखों पर मूए मुबारक नाखून के टुकड़े रखकर दफ्न कर दिया जाए । 

मुझे यकीन है कि मेरा रब इन तबर्रुकात की बरकत से मुझ पर रहम फरमाएगा । चुनाचे ऐसा ही किया गया । 

कफन दफन से फारिग होने के बाद आपके बेटे यजी़द ने खिलाफ़त की दावेदारी पेश कर दी और पूरी इस्लामी दुनिया में अपने हाकिमों को ख़बर दे दी कि मेरे नाम पर बैअत लें ।

 यज़ीद उस वक्त 35 साल का था । वह मैसून बिन्त नज्दल के पेट से पैदा हुआ था । बड़ा बदशक्ल और बद मिजाज व बद दिमाग ( आडू )था । 

उसने अपने शौक के लिए इस्लामी शरीअत में जबरदस्त फेर बदल किया । 

उसकी इन हरकतों से नाराज़ हो कर लोग हिजरत करने - लगे । 

बहरहाल , तख्त पर बैठते ही उसने अपने सारे गवर्नरों हाकिमों को हुक्म नामे जारी कर दिए । 

चुनांचे मदीना के हाकिम वलीद बिन उकबा के नाम उसने पैगाम भेजा कि तुम मेरा यह फरमान देखते ही सब आम - खास लोगों से मेरी बैअत लो ।

 ख़ास कर हज़रत इमामे हुसैन रदि अल्लाहु अन्हु , हज़रत अब्दुल रहमान बिन अबू बक्र रदि अल्लाहु अन्हु , हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रदि अल्लाहु अन्हु और हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर रदि अल्लाहु अन्हुम वगैरा जैसे खास लोगों को बिल्कुल न छोड़ना बल्कि सब से पहले इन्हीं लोगों से बैअत लेना । 

चुनांचे यजी़द का फरमान पाकर मदीना के हाकिम वलीद ने सब से पहले हज़रत इमाम हुसैन को अपने गवर्नर हाउस में बुलाया और यजीदी फरमान सुना कर आप से बैअत का तालिब हुआ । 

हज़रत इमाम हुसैन ने यजीद की शरई खराबियां गिनाते हुए फरमाया कि ऐसा आदमी इस्लामी दुनिया का खलीफा होने या तस्लीम किए जाने के काबिल नहीं ।

इसलिए मैं इस बात पर तुम से बैअत नहीं करता । आपका जवाब सुनकर वलीद ने आपको बड़ी नर्मी से समझाया और बैअत न करने पर पेश आने वाली पेरशानियों से ख़बरदार किया और बोला इस मामले में जल्द बाजी से काम न लें , घर तशरीफ ले जाएं । 

आपने उसी वक्त अपना आखिरी फैसला सुना दिया और घर तशरीफ लाए ।

 हजरत इमाम हुसैन को मालूम था कि बैअत से इन्कार करते ही , इस ख़बर के पहुंचते ही यजी़द परेशान हो जाएगा , मेरी जान का दुश्मन हो जाएगा । 

लेकिन नवास ए रसूल को यह गवारा न हुआ कि अपनी जान बचाने के लिए नाहक़ को हक़ मान लें और कौम को बेकसी के आलम में छोड़ दें । 



और यह हकीकत थी कि अगर आप यजीद को अपना खलीफ़ा तस्लीम फरमा लेते तो वह खुश हो जाता , आपकी इज्जत करता ,. 

अपनी नवाजिशों से मालामाल कर देता , यही नहीं बल्कि आपका एहसानमन्द हो कर आप के कदमों के धोवन को पीता ।

 हो सकता था कि वह आप को किसी सूबे का गवर्नर भी बना देता । 

यह सारी बातें एक तरफ़ थीं , लेकिन दूसरी तरफ हुसैनी नज़रों में यह हकीकत भी घूम रही थी कि अगर मैं यज़ीद को अपना खलीफा मान लूगां तो इस्लामी ढांचे का हाल बदल जाएगा । 

मेरी हिमायत उस की हर नाजायज़ हरकत के लिए जवाज़ बन जाएगी । 

लोग यही सोचेंगे - जब रसूल के नवासे ने यजीद को आपना खलीफा मान लिया है तो फिर वह सही होगा , वर्ना क्यों मानते ।

 यही सारी हकीकतें और अन्जाम देख व सोच कर आपने पहली मुलाकात में यजीदी हाकिम को अपने फैसले से आगाह फरमा दिया ।

और कर्बला के मैदान तक अपने उसी फैसले पर अटल रहे । कि सर दे दो मगर हाथ में जालिम के न दो हाथ ये 

रस्मे वफ़ा सीजे पयम्बर से चली है 

चुनाचे जब आपके इन्कार की खबर यजीद को दमिश्क पहुंची तो वह आग बगूला हो गया और मदीना के हाकिम वलीद को ताकीदी हुक्म भेजा कि किसी भी कीमत पर इमाम हुसैन से बैअत लो , 

अगर राजी न हों तो उनका सर काट कर मेरे पास भेजवाओ । 

जब हालात ऐसे संगीन हो गए तो आपने सहाबा की एक मीटिंग तलब फ़रमाई और बोले - हालात से निपटने के लिए क्या किया जाए ? 

इस मामले में बातचीत हुई । लोगों ने सलाह दी कि इन हालात में वक्त का तकाजा यही है कि आप मदीना शरीफ से मक्का शरीफ़ चले जाएं ।

 चुनांचे आप और हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर ने मक्का चले जाने का इरादा फरमा लिया । 

4 शाबान सन् 60 हिजरी को जुमा की रात आप अपने घर वालों को लेकर मक्का के लिए चल निकले ।

और चन्द दिनों के बाद वहां पहुंच कर बाकी शाबान , रमजान , शौवाल और जीकाद महीने बड़े सुकून से गुजारे । 

मक्का में यजीदी हाकिम सईद बिन आस ने भी आप से कोई छेड़ खानी नहीं की बल्कि वह भी बड़ी अकीदत से आपकी मजलिस में हाज़िर हुआ करता । 

लेकिन यहां के हालात से उसने यजीद को खबरदार ज़रूर कर दिया । 

मक्के के हालात सुनकर यजीद बरहम हो गया । चुनाचे उसने मक्के के हाकिम को भी सख्ती से पेश आने की ताकीद की । 

बहर हाल होनी हो के रहती है , टाले नहीं टलती ।

 यजीद की ज़्यादती के नतीजे में ही कर्बला का वाकेआ पेश आया ।

जहां हज़रत इमाम हुसैन हक़ पर साबित कदम रहते हुए इस्लामी जम्हूरियत की बहाली और दीने इस्लाम की अज्मत व सलामती के लिए अपने चन्द हामियों के साथ हक़ की राहों में 

अपनी आल , औलाद , माल , असबाब और जान भी कुर्बान करके हम हक की राहों में अपना सब कुछ कुर्बान करने का पैगाम दे गए । 

जुल्म व सितम के माहौल में जालिमों से टकराने का जज़्बा बेदार करने वाले उस मर्दे मैदां को याद करके आज भी लोग कहते हैं कि .

दुनिया को आज भी है जरुरत हुसैन की 

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Karbala ki Jung


karbala kee jang kyon huee

islaam jamhooriyat ( prajaatantr ) ka haamee hai . hak ke lie aavaaj buland karana aur islaamee shareeat kee hiphaajat ke lie apana tan - man - dhan kurbaan kar dena khaanadaane rasool kee khoobee hai . 

karbala ke maidaan mein hazarat imaam husain aur aapake saathiyon kee shahaadat is hakeekat ka saboot hai . 

hazarat ameer muaaviya damishk mein rahakar hukoomat pharamaaya karate the . 

22 rajab san 60 hijaree ko vaheen intekaal faramaaya . 

intekaal se pahale aapane vaseeyat faramaayee ki mere paas mere aaka svallallaaho alaihe vasallam ke paanch tabarrukaat hain jinhen mainne jindagee bhar badee hiphaajat se rakha hai .

 sarakaar ka tahaband , chaadar shareef , kameez , aur kaate hue naakhoon aur mooe mubaarak ke chand tukade . 

mujhe inheen kapadon ka kafan diya aur jae aur aankhon par mooe mubaarak naakhoon ke tukade rakhakar daphn kar diya jae . 

mujhe yakeen hai ki mera rab in tabarrukaat kee barakat se mujh par raham pharamaega . chunaache aisa hee kiya gaya . 

kaphan daphan se phaarig hone ke baad aapake bete yajeed ne khilaafat kee daavedaaree pesh kar dee aur pooree islaamee duniya mein apane haakimon ko khabar de dee ki mere naam par baiat len .

 yazeed us vakt 35 saal ka tha . vah maisoon bint najdal ke pet se paida hua tha . bada badashakl aur bad mijaaj va bad dimaag ( aadoo )tha . 

usane apane shauk ke lie islaamee shareeat mein jabaradast pher badal kiya . 

usakee in harakaton se naaraaz ho kar log hijarat karane - lage . 

baharahaal , takht par baithate hee usane apane saare gavarnaron, haakimon ko hukm naame jaaree kar die . 

chunaanche madeena ke haakim valeed bin ukaba ke naam usane paigaam bheja ki tum mera yah pharamaan dekhate hee sab aam - khaas logon se meree baiat lo .

 khaas kar hazarat imaame husain radi allaahu anhu , hazarat abdul rahamaan bin aboo bakr radi allaahu anhu , hazarat abdullaah bin umar radi allaahu anhu aur hazarat abdullaah bin jubair radi allaahu anhum vagaira jaise khaas logon ko bilkul na chhodana balki sab se pahale inheen logon se baiat lena . 

chunaanche yazid ka pharamaan paakar madeena ke haakim valeed ne sab se pahale hazarat imaam husain ko apane gavarnar haus mein bulaaya aur yajeedee pharamaan suna kar aap se baiat ka taalib hua . 

hazarat imaam husain ne yajeed kee saaree kharaabiyaan ginaate hue pharamaaya ki aisa aadamee islaamee duniya ka khaleepha hone ya tasleem kie jaane ke kaabil nahin .

isalie main is baat par tum se baiat nahin karata . aapaka javaab sunakar valeed ne aapako badee narmee se samajhaaya 

aur baiat na karane par pesh aane vaalee perashaaniyon se khabaradaar kiya aur bola is maamale mein jald baajee se kaam na len , ghar tashareeph le jaen . 

aapane usee vakt apana aakhiree phaisala suna diya aur ghar tashareeph lae .

 hajarat imaam husain ko maaloom tha ki baiat se inkaar karate hee , is khabar ke pahunchate hee yajeed pareshaan ho jaega , meree jaan ka dushman ho jaega . 

lekin navaas e rasool ko yah gavaara na hua ki apanee jaan bachaane ke lie naahaq ko haq maan len aur kaum ko bekasee ke aalam mein chhod den . 

aur yah hakeekat thee ki agar aap yajeed ko apana khaleefa tasleem pharama lete

to vah khush ho jaata , aapakee ijjat karata ,. 

apanee navaajishon se maalaamaal kar deta , yahee nahin balki aapaka ehasaanamand ho kar aap ke kadamon ke dhovan ko peeta .

 ho sakata tha ki vah aap ko kisee soobe ka gavarnar bhee bana deta . 

yah saaree baaten ek taraf theen , lekin doosaree taraph husainee nazaron mein yah hakeekat bhee ghoom rahee thee ki agar main yazeed ko apana khaleepha maan loogaan to islaamee dhaanche ka haal badal jaega . 

meree himaayat us kee har naajaayaz harakat ke lie javaaz ban jaegee . 

log yahee sochenge - jab rasool ke navaase ne yajeed ko aapana khaleepha maan liya hai to phir vah sahee hoga , varna kyon maanate .

 yahee saaree hakeekaten aur anjaam dekh va soch kar aapane pahalee mulaakaat mein yajeedee haakim ko apane phaisale se aagaah pharama diya .

aur karbala ke maidaan tak apane usee phaisale par atal rahe . ki sar de do magar haath mein jaalim ke na do haath ye 

rasme vafa seeje payambar se chalee hai 

chunaache jab aapake inkaar kee khabar yajeed ko damishk pahunchee to vah aag bagoola ho gaya aur madeena ke haakim valeed ko taakeedee hukm bheja ki kisee bhee keemat par imaam husain se baiat lo , 

agar raajee na hon to unaka sar kaat kar mere paas bhejavao . 

jab haalaat aise sangeen ho gae to aapane sahaaba kee ek meeting talab faramaee aur bole - haalaat se nipatane ke lie kya kiya jae ? 

is maamale mein baatacheet huee . logon ne salaah dee ki in haalaat mein vakt ka takaaja yahee hai ki aap madeena shareeph se makka shareef chale jaen .

 chunaanche aap aur hazarat abdullaah bin jubair ne makka chale jaane ka iraada pharama liya . 

4 shaabaan san 60 hijaree ko juma kee raat aap apane ghar vaalon ko lekar makka ke lie chal nikale .

aur chand dinon ke baad vahaan pahunch kar baakee shaabaan , ramajaan , shauvaal aur jeekaad maheene bade sukoon se gujaare . 

makka mein yajeedee haakim saeed bin aas ne bhee aap se koee chhed khaanee nahin kee balki vah bhee badee akeedat se aapakee majalis mein haazir hua karata . 

lekin yahaan ke haalaat se usane yajeed ko khabaradaar zaroor kar diya . 

makke ke haalaat sunakar yajeed baraham ho gaya . chunaache usane makke ke haakim ko bhee sakhtee se pesh aane kee taakeed kee . 

bahar haal honee ho ke rahatee hai , taale nahin talatee .

 yajeed kee zyaadatee ke nateeje mein hee karbala ka vaakea pesh aaya .

jahaan hazarat imaam husain haq par saabit kadam rahate hue islaamee jamhooriyat kee bahaalee aur deene islaam kee ajmat va salaamatee ke lie apane chand haamiyon ke saath haq kee raahon mein 

apanee aal , aulaad , maal , asabaab aur jaan bhee kurbaan karake ham hak kee raahon mein apana sab kuchh kurbaan karane ka paigaam de gae . 

julm va sitam ke maahaul mein zaalimon se takaraane ka jazba bedaar karane vaale us marde maidaan ko yaad karake aaj bhee log kahate hain ki 

duniya ko aaj bhee hai jarurat husain kee

Why did the battle of Karbala happen?

Islam is a supporter of Democracy. Raising voice for the right and sacrificing one's body, mind and wealth for the protection of Islamic Shari'a is the quality of the family Messenger.

 The martyrdom of Hazrat Imam Hussain and his companions in the field of Karbala is proof of this reality.

 Hazrat Amir Muawiyah used to rule while staying in Damascus.

 He passed away there on 22 Rajab, 60 Hijri.

 Before his death, you made a will that I have five tabarrukats of my master swallallahu alayhe wa sallam, which I have kept with great care throughout my life. Sarkar's tahband, chadar sharif, shirt, and bitten nails and a few pieces of Mue Mubarak.

 Gave me a shroud of these clothes and go and be buried by placing pieces of happy nails on my eyes.

 I am sure that my Lord will have mercy on me with the blessings of this Tabarrukat. It was done like this.

 After being released from the shroud, your son Yazid submitted the claim for khaliphate and informed his rulers all over the Islamic world to take bayat in my name.

  Yazid was 35 years old at the time. He was born from the womb of Maisoon bint Najdal. Had a very bad appearance and bad mood and bad mind (Peach).

 He made a tremendous change in Islamic Shari'a for his hobby.

 Angered by his antics, people started doing Hijrat.

 However, as soon as he sat on the throne, he issued orders to all his governors and princes.

 Therefore, he sent a message in the name of Waleed bin Uqba, the ruler of Medina, that on seeing this decree of mine, take my Bait from all the common people.

  Especially do not leave special people like Hazrat Imam Hussain Radi Allahu Anhu, Hazrat Abdul Rahman bin Abu Bakr Radi Allahu Anhu, Hazrat Abdullah bin Umar Radi Allahu Anhu and Hazrat Abdullah bin Zubair Radi Allahu Anhum etc. to take .

 Therefore, after receiving Yazid's decree, Waleed, the ruler of Medina, first of all called Hazrat Imam Hussain to his governor's house and after hearing the Yazidi decree, he was asked to pray.

 Hazrat Imam Hussain, while enumerating the shortcomings of Yazid's Shari, said that such a man is not worthy of being the Caliph of the Islamic world or to be taught.

 That's why I do not argue with you on this matter. On hearing your answer, Waleed explained to you very softly and warned you about the troubles you would face if you did not do Bayat and said, do not act in a hurry in this matter, take home the glory.

 You gave your final verdict at the same time and brought home the glory.

  Hazrat Imam Hussain knew that as soon as he refused the bayat, Yazid would be disturbed as soon as this news reached, he would become the enemy of my life.

 But Nawas-e-Rasool could not accept it as a right to save his life and leave the community in the state of helplessness.

 And it was a fact that if you had made Yazid your Caliph,

So he would have been happy, respected you.

 Not only would he become rich with his blessings, but being grateful to you, he would drink the washing of your feet.

  Maybe he would have made you the governor of a province as well.

 All these things were on one side, but on the other hand the reality was also circulating in Hussaini's eyes that if I accept Yazid as my caliph, then the condition of the Islamic structure will change.

 My intercession will be the answer for every illegitimate act of his.

 People will think this - when the grandson of Rasool has accepted Yazid as his Caliph, then he will be right, otherwise why would he believe.

  Seeing and thinking about all these facts and results, you warned Yazidi Hakim of your decision in the first meeting.

 And remained firm on his decision till the field of Karbala. Give that head but don't let the bloodthirsty in your hands

 The ritual wafa has gone from CJ Pyambar

 Therefore, when the news of your refusal reached Yazid in Damascus, he became furious and sent a command to the ruler of Medina, Waleed, to take bayat from Imam Hussein at any cost,

 If you don't agree, cut off their heads and send them to me.

 When the situation became like this, you called for a meeting of the Sahaba and said - what should be done to deal with the situation?

 Discussion took place in this matter. People advised that in these circumstances the need of the hour is that you should move from Medina Sharif to Mecca Sharif.

  Therefore, you and Hazrat Abdullah bin Zubair decided to go to Mecca.

 On the night of Juma on 4 Sha'ban, 60 Hijri, you left for Mecca with your family members.

 And after reaching there after a few days, the rest of the months of Sha'ban, Ramzan, Shawwal and Zikad passed with great ease.

 Yazidi Hakim Saeed bin Aas in Mecca also did not molest you, but he also used to attend your Majlis with great devotion.

 But from the situation here, he did warn Yazid.

 Hearing the situation in Makkah, Yazid was stunned. Instead he also asked the maize prince to behave strictly.

 However, the situation has to happen, it does not get postponed.

  The incident of Karbala came as a result of Yazid's excesses.

 Where Hazrat Imam Hussein, while being a proven step on Haq, is in the path of Haq with his few supporters for the restoration of Islamic democracy and for the honor and well-being of Deen Islam.

 By sacrificing our children, goods, furnishings and even our lives, we gave the message of sacrificing everything in the path of right.

 In the atmosphere of oppression and oppression, remembering the man who had the courage to fight with the oppressors, even today people say that the world still needs Hussain.

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