ustad ka martaba in islam

ustad ka martaba in islam हुकूके उस्ताज़ ustad ka maqam in islam


जैसे हम सब जानते हैं कि Teacher उस्ताद Father बाप ही का दर्जा रखता है बल्कि बाज़ वजहों से उसका status दर्जा बाप से ज़्यादा है इसलिए अब Teacher उस्ताद के हुकूक का मुख़्तसर बयान किया जाता है।

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Ustad ka martaba in Islam 


फतावा आलमगीरी में नेज़ इमाम हाफिज उद्दीन कुरूरी से है कि फ़रमाया इमाम ज़न्दवीस्ती ने आलिम का हक जाहिल पर और Teacher उस्ताद का हक student शागिर्द पर यकसाँ है।

  1. और वह यह कि उससे पहले बात न करे ।
  2. उसकी जगह उसकी गैर मौजूदगी में भी न बैठे और उसके बैठने। 
  3. उसकी बात को रद्द न करे और चलने में उससे आगे न बढ़े।

उसी में 'गराइब' से है :-

आदमी को चाहिए कि अपने उस्ताद के हुकूक व आदाब का लिहाज़ रखे अपने माल में किसी चीज़ से उसके साथ बुख्ल (कंजूसी) न करे । 

(यानी जो कुछ उसे दरकार हो बख़ुशी उसे हाज़िर करे और उसके कबूल कर लेने में उसका एहसान और अपनी सआदत जाने)


इसी में 'तातारख़ानिया' से है :-

उस्ताद के हक को अपने माँ बाप और तमाम मुसलमानों के हक से मुकद्दम रखे और जिसने उसे Good knowledge अच्छा इल्म सिखाया।

 अगचें एक ही word शब्द पढ़ाया हो उसके लिए please respect तवाज़ो करे और लाएक नहीं कि किसी वक़्त उसकी Help मदद से बाज़ रहे। 

अपने Teacher उस्ताद पर किसी को preference तरजीह न दे अगर ऐसा करेगा तो उसने islam इस्लाम की रस्सियों से एक रस्सी खोल दी। 

Teacher उस्ताद की ताज़ीम से है कि वह घर के अन्दर हो और यह हाज़िर हो तो उसका दरवाज़ा न खटखटाए बल्कि उसके आने का इन्तेजार करे।

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Ustad ka maqam 


अल्लाह न आला इरशाद फरमाता है

إِنَّ الَّذِينَ يُنَادُونَكَ مِنْ وَرَاءِ الْحُجُرَاتِ أَكْثَرُ هُمْ لَا يَعْقُلُوْنَ وَلَوْ أَنَّهُمُ صَبَرُوْ حَتَّى تَخْرُجَ إِلَيْهِمْ لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيْمٌ

तर्जमा : बेशक जो तुम्हें हुजरों के बाहर से पुकारते हैं। उनमें अकसर stupid बे अक्ल हैं और अगर वह Patience सब्र करते यहाँ तक कि तुम उनके पास तशरीफ़ लाते तो यह उनके लिए बेहतर था और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है।


आलिमे दीन हर मुसलमान के हक में उमूमन और उस्ताद इल्मे दीन अपने student शागिर्द के हक खुसूसन हुजूर पुर नूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का नाइब है। 

हाँ अगर किसी खिलाफे शरा बात का हुक्म दे तो हरगिज़ न करे। 

चूंकि हदीस शरीफ में है कि ख़ुदा की नाफरमानी में किसी की इताअत नहीं। मगर उसे न मानने पर भी गुस्ताख़ी व बेअदबी से पेश न आए। 

हदीस शरीफ में है कि बुराई बुराई से दूर नहीं होती। 

उस्ताद का वह हुक्म जो ख़िलाफ़े शरा हो वह हुक्म मानने से अलग है यानी उसे करने का हुक्म नहीं। 

शागिर्द को चाहिए किसी भी तरह ख़ुशामद वगैरा से उससे माफी चाह ले। 

उस्ताद का हुक्म अगर मुबाह है (यानी अगर ऐसी बात का हुक्म उस्ताद ने दिया जिसको शरीअत ने न कहा न मना किया) है तो जहाँ तक हो सके वह हुक्म बजा लाए।

 और इस हुक्म बजा लाने को अपनी सआदत जाने और नाफरमानी का हुक्म मालूम हो चुका कि उसने इस्लाम की गिरहों से एक गिरह खोल दी।

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Ustad ka matalab 


उलमा फरमाते हैं कि जिससे उसके उस्ताद को किसी तरह की ईज़ा पहुँचे वह इल्म की बरकत से महरूम रहेगा और उसके अहकाम वाजिबाते शरिइया हैं !

यानी उस्ताद ने कोई वाजिब हुक्म दिया तब तो ज़ाहिर है कि उनका हुक्म और ज़्यादा बजा लाना जरूरी हो गया और ऐसे वक़्त पर नाफरमानी जहन्नम की राह है। वल अयाजु बिल्लाहि तआला।


उस्ताद की नाशुक्री बढ़ी भयानक बला और मज़े कातिल है जिससे इल्म की बरकत जाइल हो जाती है।


हुजूर सय्यदे आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि जिसने लोगों का शुक्र न अदा किया वह ख़ुदा का भी शुक्रगुज़ार नहीं।


अल्लाह तआला फरमाता है :-

لَئِنْ شَكَرُ تُمْ لَا زِيدَ نَّكُمْ وَلَئِن كَفَرُ ثُمْ إِنَّ عَذَابِي لَشَدِيدَه

तर्जमा : अगर ऐहसान मानोगे तो मैं तुम्हें और दूंगा और अगर नाशुक्री करो तो मेरा अज़ाब सख़्त है।


और फ़रमाया अल्लाह पाक ने :- إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ كُلَّ خَوَّانٍ كَفُورٍ

तर्जमा : बेशक अल्लाह दोस्त नहीं रखता हर बड़े दगाबाज़ सख़्त नाशुक्रे को।


और फ़रमाया अल्लाह पाक ने :-

هَلْ نُجْزِئُ إِلَّا الْكَفُورِه ( ۲۲ (۸)

तर्जमा : हम किसे सज़ा देते हैं उसे जो नाशुक्रा है।


सरवरे आलम सल्लल्लाहु ने फ़रमाया “ जिस पर किसी ने एहसान किया उसने सिवा तारीफ के उसका और कोई एवज़ न पाया तो बेशक उसने अपने मोहसिन का शुक्रिया अदा कर दिया।

और जिसने उसको छुपा लिया और कोई तारीफ भी न की तो जुरूर उसने नाशुक्री की"

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Ustad Teachers 


उस्ताज़ की नाशुक्री व नाकदरी बाप के साथ नाफरमानी का हुक्म रखती है, उस्ताद बमन्ज़िले बाप होता है।


हुजूरे अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं " मैं तुम्हारा बाप ही हूँ कि तुमको इल्म सिखाता हूँ।

बल्कि उल्मा ने फरमाया है कि उस्ताद का हक वालदैन के हक पर मुकद्दम रखे कि उनसे जिस्मानी ज़िन्दगी वाबस्ता है।

 और उस्ताद रूहानी ज़िन्दगी का सबब है और ख़ुद parents वालिदैन की नाफमानी का बबाल सख़्त है।

 इसलिए कि हुजूर ने इसको शिर्क के साथ बयान फरमाया है। 

इरशाद है " हुजूर ने तीन मरतबा फरमाया कि मैं तुमको सबसे बड़ा गुनाह न बता दूं सहाबा ने अर्ज़ की हाँ क्यूँ नहीं या रसूलल्लाह। " फरमाया।

  1.  ख़ुदा के साथ किसी को शरीक करना। 
  2. और वालिदैन की नाफरमानी " और ख़ुद इस बाब में इस कद्र हदीसें हैं कि दफ़्तर दरकार हैं।
  3.  नीज़ उस्ताद की नाशुक्री व तहकीर गुलाम के अपने आका के भाग जाने के बराबर है जिसका वबाल हदीस में निहायत सख़्त बताया गया है कि (भागा हुआ गुलाम जब तक अपने आका के पास न आए ख़ुदा उसका फर्ज़ कबूल करता है न नफ़्ल)।
  4. हज़रत मौलाए आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने " जिसने किसी बन्दे को किताबुल्लाह की कोई एक फरमाया आयत सिखा दी तो वह उसका आका(उस्ताद) हो गया।


अमीरुल मोमिनीन रदियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं कि " जिसने कि मुझे एक हर्फ पढ़ा दिया तो बतहकीक उसने मुझको अपना बन्दा (शागिर्द ,छात्र) बनाया अगर चाहे बेचे और अगर चाहे आज़ाद करे।


हज़रत इमाम शमसुद्दीन सखावी (मकासिदे हसना) में मृहद्दिस शोअबा इब्ने हुज्जाज रहमतुल्लाहि तआला अलैह से रिवायत करते हैं कि उन्होंने फरमाया जिससे कि मैने (4-5) चार या पाँच हदीसें लिख लीं तो मैं उसका बन्दा हो गया यहाँ तक कि मैं मरूँ।

और दूसरे अलफाज़ के साथ फ़रमाया जिस किसी से एक हदीस भी लिखी तो मैं उसका बन्दा हो गया आख़िरी " दम तक।


हज़रते अबू हुरैरा रदियल्लाहु तआला अन्हु से मरवी है कि हुजूरे अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया इल्म education हासिल करो और इल्म के लिए सुकून व वकार सीखो।

और जिससे तुम (यानी जिस उस्ताद ) से इल्म हासिल कर रहे हो उसके सामने तवाज़ो और आजिज़ी इख़्तेयार करो।

इससे समझ में आया की उस्ताद का बहुत ऊंचा मर्तबा रखा गया है। अल्लाह पाक हमें अपने उस्तादों की इज्जत करने वाला बनायें। आमीन।

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