Quran ka mafhum in hindi

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और बेशक यह कुरआन रब्बुल आलमीन का उतारा हुआ है । इसे रूहुल अमीन लेकर उतरा । तुम्हारे दिल पर कि तुम डर सुनाओ । रौशन अरबी ज़बान में , और बेशक इसका चर्चा अगली किताबों में है । ( आयत नं ० १६२ से १६४ , सूरः शुअरा ) 

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Quran ki hidayat

बेशक यह क़ुरआन वह राह दिखाता है जो सबसे सीधी है । और खुशी सुनाता है ईमान वालों को जो अच्छे काम करें कि उन के लिये बड़ा सवाब है । ( आयत ६ , सूरः बनी इस्राईल ) 


और स्पष्टतः हमने उतारी तुम्हारी तरफ़ पथ प्रदर्शन करने वाली आयतें , और कुछ उन लोगों का उदाहरण , जो तुम से पहले हो गुज़रे , और डर वालों के लिये नसीहत । अल्लाह नूर ( प्रकाश ) है आसमानों और ज़मीन का , इसके नूर की मिसाल ऐसी है जैसे एक ताक़ , कि उसमें चिराग है ।


 वह चिराग एक फ़ानूस में है , वह फानूस गोया एक सितारा है माती सा चमकता , रौशन होता है बर्कत वाले पेड़ जैतून से , जो न पूरब का न पश्चिम का करीब है कि इसका तेल भड़क उठे अगरचे इसे आग न छुए , नूर पर नूर है । अल्लाह अपने नूर की राह बताता है जिसे चाहता है , और अल्लाह मिसालें ब्यान फ़रमाता है लोगों के लिये , और अल्लाह सब कुछ जानता है । ( आयत ३४ से ३५ . सूरः नूर ) 


और इस कुरआन की यह शान नहीं कि कोई अपनी तरफ से बना ले बे अल्लाह के उतारे , हां वह अगली किताबों की पुष्टि है , और लौह ( विशिष्ट किताब ) में जो कुछ लिखा है सबका विस्तार है , इसमें कुछ शक नहीं परवर्दिगारे आलम की तरफ से है । ( आयत नं ० ३७ , सूरः यूनुस )

Quran ki hidayat क़ुरआन की हिदायत 

और घोषणा कर दो कि सत्य आया और असत्य मिट गया , बेशक असत्य को मिटना ही था । और हम कुरआन में उतारते हैं वह चीज़ जो ईमान वालों के लिये आरोग्य और दयालुता है और इससे ज़ालिमों को नुक्सान ही बढ़ता है । ( आयत ८१-८२ , सूरः बनी इस्राईल ) 


तो तुम्हारे पास तुम्हारे रब का स्पष्ट प्रमाण और मार्ग दर्शन और दयालुता आई । तो उससे ज़्यादा ज़ालिम कौन ? जो अल्लाह की आयतों को झुटलाये और उनसे मुंह फेरे । अनक़रीब वह जो हमारी आयतों से मुंह फेरते हैं हम उन्हें बुरी यातना देंगे ! बदला उन के मुंह फेरने का । ( आयत १५७ , सूरः अनआम )


 बेशक यह क़ुरआन काफ़ी है इबादत वालों को । और हम ने तुम्हें न भेजा मगर रहमत सारे जहान के लिये । तुम फ़रमाओ मुझे तो यही वही ( कुरआन ) हुई है कि तुम्हारा माबूद नहीं मगर एक अल्लाह । तो क्या तुम मुसलमान होते हो ? ( आयत १०६ से १०८ , सूरः अंबिया )


अल्लाह तुम में फैसला कर देगा क़यामत के दिन जिस बात में मतभेद कर रहे हो । क्या तू ने न जाना कि अल्लाह जानता है जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है । बेशक यह सब एक किताब में है । बेशक यह अल्लाह पर आसान है । और अल्लाह के सिवा ऐसों को पूजते हैं जिनकी कोई सनद उसने न उतारी और ऐसों को जिन का खुद उन्हें कुछ इल्म नहीं । और सितमगारों का कोई मददगार नहीं । ( आयत ६६ से ७१ , सूरः हज )


 चौबीस आयात का.कुरआनी मफ़हूम 24 aayat e qurani ka mafhum

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह स्वल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर अल्लाह की तरफ़ से ; द्वारा जिब्राईल अमीन जिस तरह क़ुरआने हकीम का अवतरण हुआ था ठीक उसी तरह इस की एक - एक आयत और एक - एक शब्द आज भी बिना कम व बेश हमारी निगाहों के सामने मौजूद है । 


और ख़ानए काबा जो अनवारे इलाही व तजल्लियाते रब्बानी ( अल्लाह का प्रकाश व उसकी चमक ) का केंद्र है वह भी पूरे पवित्रता व महानता के साथ मक्का मुकर्रमा की सरज़मीन की तरफ़ आलमे इस्लाम की भावना व आकर्षण का कारण उसके केंद्र बिंदु का एक रौशन मीनार बना हुआ है । 


क़ुरआन और काबा पर नज़र पड़ते ही हर मुसलमान का दिल अपने आप उनकी तरफ खिंचने लगता है । वह एक अदभुत से परम आनन्द में डूबने लगता है और उसके इस्लाम व ईमान में एक नई ताक़त और ताज़गी का अहसास होने लगता है । 


लेकिन यही क़ुरआन और यही काबा इस्लाम दुश्मन लोगों की निगाहों में कांटे की तरह खटकते रहते हैं । और वह यह समझते हैं कि मुसलमानों के अंदर ईमानी कुव्वत व ताक़त के यही दो स्रोत हैं । 


जब तक वह उनसे गिज़ा व सैराबी हासिल करते रहेंगे उस वक्त तक वह मज़बूत व तवाना और बहादुर कौम की तरह दुनिया की बिसात पर अपना वर्चस्व बाकी और अपना रोल जारी रखेंगे । 


किसी अंग्रेज़ दार्शनिक के बारे में मशहूर है कि उसके रीडिंग रूम में एक तरफ़ . क़ुरआन और दूसरी तरफ काबा का नक्शा था । और वह अपने विशिष्ट मिलने जुलने वालों से हमेशा यह कहा करता था कि मुसलमानों का रिश्ता जब तक इन दोनों से काट नहीं दिया जायेगा उस वक़्त तक इन्हें कमज़ोर व बे – असर और धराशायी नहीं किया जा सकता है ।

चौबीस आयात का.कुरआनी मफ़हूम 

1. फिर जब हुरमत वाले महीने निकल जायें तो मुश्रिकों को मारो जहा पाओ , और उन्हें पकड़ो और कैद करो , और हर जगह उनकी ताक में बैठो । फिर अगर वह तौबा करें और नमाज़ क़ायम रखें और ज़कात दें तो उनकी | राह छोड़ दो । बेशक अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है । ( आयत 5 सूरः तौबा , पारा 10 ) 

3. ऐ ईमान वालो ! बेशक मुश्रिक नापाक हैं , तो इस बरस के बाद वह मस्जिदे हराम के पास न आने पाये । और अगर तुम्हें मोहताजी का डर सता रहा है तो अनकरीब अल्लाह तुम्हें अपने कल से गनी कर देगा अगर चाहे । बेशक अल्लाह इत्म व हिकमत वाला है । ( आयत 28 : सूर : तौया , पारा 10 ) 

3. और जब तुम ज़मीन में सफर करो तो तुम पर कोई गुनाह नहीं अगर कुछ नमाजें कस्र से पड़ो अगर तुम्हें अंदेशा हो कि काफिर तुम्हें कष्ट देंगे । बेशक काफ़िर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं । ( आयत 101 सूरः निसा ) 

4. ऐ ईमान वालो ! जिहाद करो उन काफिरों से जो तुम्हारे करीब है । और चाहिये कि वह तुम में सख़्ती पायें । और जान रखो कि अल्लाह परहेजगारों के साथ है । ( आयत 123 सूरः तौबा , पारा 11 ) 

5. जिन्होंने हमारी आयतों का इंकार किया अनकरीब हम उनको आग में दाखिल करेंगे । जब कभी उनकी खालें पक जायेंगी हम उन्हें बदल देंगे कि अज़ाब का मज़ा लें । बेशक अल्लाह गालिब हिकमत वाला है । ( आयत 56 सूरः निसा ) 

6. ऐ ईमान वालो ! अपने बाप और अपने भाईयों को दोस्त न समझो , अगर वह ईमान पर कुफ्र पसंद करें । और तुम में जो उनसे दोस्ती करेगा , तो वही जालिम हैं । ( आयत 23. सूरः तौबा पारा 10 ) 

7. उनका महीने पीछे हटाना नहीं मगर और कुफ़ में बढ़ना । इससे काफ़िर बहकाए जाते हैं । एक बरस उसे हलाल ठहराते हैं और दूसरे बरस उसे हराम मानते हैं , कि इस गिनती के बराबर हो जायें जो अल्लाह ने हराम फरमाई हैं । और अल्लाह के हराम किये हुए को हलाल कर लें , उनके बुरे काम उनकी आंखों में भले लगते हैं और अल्लाह काफिरों को राह नहीं देता । ( आयत 37 सूरः तौबा पारा 10 ) 

8. ऐ ईमान वालो ! जिन्होंने तुम्हारे दीन ( धर्म ) को हंसी खेल बना लिया है , वह जो तुम से पहले किताब दिये गये और काफिर उनमें से किसी को अपना दोस्त न बनाओ , और अल्लाह से डरते रहो , अगर ईमान रखते हो । ( आयत 57 सूरः मायदा पारा 6 ) 

9. फटकारे हुए जहां कहीं मिलें पकड़े जायें और गिन गिन कर कत्ल किये जायें । अल्लाह का दस्तूर चला आता है उन लोगों में जो पहले गुज़र गये । और तुम अल्लाह का दस्तूर हरगिज़ बदलता न पाओगे । ( आयत 61,62 सूरः अहज़ाब ) 

10. बेशक तुम और जो कुछ अल्लाह के सिवा तुम पूजते हो सब जहन्नम के ईधन हो , तुम्हें उसमें जाना है । ( आयत 68 सूरः अंबिया , पारा 17 ) 

11. और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन है जिसे उसके रब की आयतों से नसीहत की गई । फिर उसने उनसे मुंह फेर लिया । बेशक हम मुजरिमों से बदला लेने वाले हैं । ( आयत 22 , सूरत सज्दा , पारा 21 ) 

12. और अल्लाह ने तुमसे वादा किया है बहुत सी गनीमतों का कि तुम लोगे । तो तुम्हें यह जल्द अता फ़रमा दी , और लोगों के हाथ तुम से रोक दिये ।

और इसलिये कि ईमान वालों के लिये निशानी हो और तुम्हें सीधी राह दिखा दे । ( आयत 20. सूरः अलपतह . पारा 26) 

13. तो खाओ जो गनीमत तुम्हें मिली हलाल पाकीज़ा । और अल्लाह से डरते रहो , बेशक अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है । ( आयत 66 सूरः अनफाल )

14 . ऐ नबी ! काफिरों पर और मुनाफ़िकों पर जिहाद करो और उन पर सख़्ती करो । और उनका ठिकाना जहन्नम है , और क्या ही बुरा अंजाम । ( आयत 6 सूरः तहरीम ) 

15. तो बेशक हम ज़रूर काफिरों को सख़्त अज़ाब चखायेंगे । और बेशक हम उनके बुरे से बुरे कामों का उन्हें बदला देंगे । ( आयत 27 , सूरः हामीम सज्दा )

16 . यह है अल्लाह के दुश्मनों का बदला आग , उसमें उन्हें हमेशा रहना है । सज़ा उसकी कि हमारी आयतों का इंकार करते थे । ( आयत 28 सूरः हामीम सज्दा)  

17. बेशक अल्लाह ने मुसलमानों से उनके माल और जान ख़रीद लिए हैं इस बदले पर कि उनके लिये जन्नत है । अल्लाह की राह में लड़ें तो मारें और मरें । उसके ज़िम्मे करम पर सच्चा वादा तोरैत और इंजील और कुरआन में । और अल्लाह से ज़्यादा कौल का पक्का कौन ? तो खुशियां मनाओ अपने सौदे की जो तुम ने उससे किया है । और यही बड़ी कामयाबी है । ( आयत 111 , सूरः अलतौबा , पारा 11 )

18. अल्लाह ने मुनाफ़िक मर्दो और मुनाफ़िक औरतों और काफिरों को जहन्नम की आग का वादा दिया है , जिस में हमेशा रहेंगे , वह उनके लिये बस है । और अल्लाह की उन पर लानत है , और उनके लिये कायम रहने वाला अज़ाब है । ( आयत 68 , सूरः अल - तौबा , पारा 10 ) 

19. ऐ नबी ! मुसलमानों को जिहाद की तर्णीब दो । अगर तुम में के बीस सब्र वाले होंगे तो दो सौ पर गालिब होंगे । अगर तुम में के सौ हों तो काफिरों के हज़ार पर गालिब आयेंगे । इसलिये कि वह समझ नहीं रखते । ( आयत 65 , सूरः अनफ़ाल , पारा 10 ) 

20. ऐ ईमान वालो ! यहूद व नसारा ( मसीही ) को दोस्त न बनाओ । वह आपस में एक दूसरे के दोस्त हैं । और तुम में जो कोई उनसे दोस्ती रखेगा तो वह उन्हीं में से है । बेशक अल्लाह बे इंसाफ़ों को राह नहीं देता । ( आयत 51, सूरः माइदा ) 

21. लड़ो उनसे जो ईमान नहीं लाते अल्लाह पर और कयामत पर और हराम नहीं मानते उस चीज़ को जिसको हराम किया अल्लाह और उसके रसूल ने और सच्चे दीन के ताबे नहीं होते , यानी वह जो किताब दिये गये , जब तक अपने हाथ से जिज्या न दें ज़लील होकर । ( आयत 26. सूरः तौबा ,) 

22. और वह जिन्होंने दावा किया कि हम नसारा ( मसीही ) हैं । हमने उनसे 

अहद लिया तो वह भुला बैठे बडा हिस्सि इन नसीहतों का जो उन्हें दी गई । ता हमने उनके मन में कयामत के दिन तक दुश्मनी व नफरत डाल दिया और अनकरीब अल्लाह इन्हें बता देगा जो कुछ वह करते था ( आयत १८ सूरः मायदा )

  23 . वह तो यह चाहते हैं कि कहीं तुम भी काफिर हो जाओ जैसे वह काफिर हुए । तो तुम सब एक हो जाओ तो उनमें से किसी को दोस्त न बनाओ जब तक अल्लाह की राह में घर बार न छोड़ें । फिर अगर वह मुंह फेर दें तो उन्हें पकड़ो और जहां पाओ कत्ल करो । और उनमें से किसी को दोस्त न ठहराओ न मददगार ( आयत 86. सूरः निसा , पारा 5)

 24. तो उनसे लड़ो अल्लाह उन्हें अज़ाब देगा तुम्हारे हार्थों और उन्हें रुसवा करेगा और तुम्हें उन पर मदद देगा और ईमान वालो का दिल ठंडा करेगा । ( आयत 14, सूरः अल तोबा ) 


ऊपर दर्ज की गई आयते करीमा जिन अवसरों पर उतरीं । पैगम्बरे इस्लाम हजरत मोहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने और सहाबा किराम ने जो मतलब समझा और दूसरों को समझाया , कुरआन व हदीस समझने वाले उल्माए किराम ने अपनी किताबों में उनकी जो व्याख्या की , 

उनके ज्ञान व अध्ययन के बिना अपने मतलब की आधी अधूरी बात करना और दूसरी हजारों आयाते इस्लान व अहादीस नबवी को छोड़कर वाही तबाही बकना इंसाफ़ व दियानत से दूर और केवल अपनी नासमझी की बिना पर फ़ितना खड़ा करना है ! 

 क़ुरआनी आयात का मतलब सही सही पेश करने की संक्षिप्त कोशिश की जा रही है ।

 पाठक इसे ध्यानपूर्वक और निरपेक्ष होकर व एकाग्रता के साथ अव्ययन करें । 

१. सूरः अंफाल की आयत ६५ से लगी हुई अगली आयत ६६ में अल्लाह ने अपने फज्ल व करम से मुकाबले की संख्या में कमी करते हुए इरशाद फरमायाः तो अगर तुम में के सौ सद्र वाले हों दो सौ पर गालिब आयेंगे और अगर तुम में के एक हज़ार हाँ तो दो हज़ार पर गालिब होंगे अल्लाह के हुक्म से । ( आयत ६६ सूरः अंफाल )

 यानी अल्लाह ने तादाद में कमी करके एक और दस का अनुपात कम करके एक और दो का अनुपात कर दिया । यह सूरः अंफाल मदीना में उतरीं जबकि मक्का के लोगों ने मुसलमानो की ज़िन्दगी अजीरन कर दी थी और रातों रात पैगम्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को हिजरत करके मक्का से मदीना जाना पड़ा था ।

 मक्का के विरोधी मदीना में भी मुसलमानों को चैन से जीने नहीं दे रहे थे । साज़िश व फित्ना और उनका पीछा करके वहां से भी उन्हें निकालना और निकलवाना चाहते थे । यहां तक कि भारी संख्या में साज व सामान क साथ मक्का से मदीना पहुंच कर उनपर हमला भी कर दिया । 

निहत्थे मुसलमान उनके मुकाबले में जब आये तो उनकी कुल संख्या तीन सौ तेरह थी । इस जंग का नाम “ गज़वए बदर " है जो तारीखे इस्लाम की पहली जंग है ।

 इस जंग से पहले संबंधित आयात उतरीं जिनमें पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अल्लाह ने हुक्म दिया कि तुम मुसलमानों को तैयारी व मुकाबला के लिए प्रोत्साहित करो उनके अंदर शौक व जुर्रत पैदा करो , उनके हौसले बढ़ाओ , ईमानी व रूहानी ताकत के साथ जब यह हमला आवारों के सामने आयेंगे तो उनमें एक ही उनके दो के मुकाबले में काफी होगा । और ताज्जुब नहीं कि खुदा की मदद इससे ज़्यादा पर भी एक ही मुजाहिद भारी पड़ जाये । 

आज की या कल की दुनिया आंख खोल कर देखे और बताये कि अगर दुश्मन फ़ौज जंग की तैयारी कर रही हो । चढ़ाई के लिये कूच कर रही हो । उसके घोड़े हिनहिना रहे हों , उसके हाथी चिंघाड़ रहे हों । 

उसकी तलवार व भाले चमक रहे हों , उसकी बंदूकें व मशीनगनें आग उगलने और उसकी तोपों के दहाने लाशों के चिथड़े उड़ाने के लिये बेताब हों , और विरोधी फौज कतार अंदर कतार खड़ी होकर आंखें दिखा रही हो तो फिर उस वक्त अपने आदमियों अपने जवानों और अपने बूढ़ों के सीने में जुर्रत व बहादुरी के साथ मुकाबला और जंग का ठोस इरादा व हौसला न पैदा किया जाये तो फिर क्या किया जाये ?

 और जो ऐसा न कर सके उस कौम व मुल्क की धार्मिक व सामाजिक व मुल्की व कौमी भान व सम्मान को किस गड्ढे और किस खाई में दफ़न किया जाये ?

चौदह सौ साल पहले नहीं बल्कि आज की इक्कीसवीं सदी ईसवी में दुनिया का कौन सा मुल्क कौन सी कौम कौन सा कवीला और कौन सा धर्न है जो बिना किसी जंग व मुकाबला के अपने दुश्मन के सामने सर झुकाकर अपना अस्तित्व ख़त्म करने के लिये तैयार है ? 

१४. सूरः तहरीम भी मक्का से हिजरत के बाद मदीना ही में अवतरित हुई जब कि मुसलमान कठिनाइयों के अपने दिन काट रहे थे । इसकी आयत ६ में काफ़िरीन व मुनाफ़िक़ीन के खिलाफ़ दिया गया जिहाद का हुक्म भी पहले ही जैसा है । 

उनके साथ सख्ती से पेश आने और उनकी चालें नाकाम बनाना ज़रूरी था । उनकी अंदरूनी व बाहरी साज़िशें मुसलमानों के हित में दिन बदिन खतरा बनती जा रही थी जिनका इलाज करना वक्त की विशेष मांग थी ।

 और स्पष्ट है कि अल्लाह व रसूल की अवमानना करने वालों और कुरआन को न मानने वालों का अंजाम जहन्नम ही है और जहन्नम में जाने बुरा अंजाम और कौन सा हो सकता है ?

 ७. सूरः तौवा की आयत ३७ की व्याख्या यह है कि अरब के लोग जो जंग के आदी थे वह हुरमत वाले महीनों में ( वह महीना जिसका खास आदर किया जाये ) जब अपनी ख्वाहिश और दुनियावी फायदे के लिये किसी विरोधी कवीला से जंग करना चाहते थे तो एक माह की हुरमत दूसरे माह की तरफ़ हटाने लगे और अपने जी से जिस माह को चाहते उसे हुरमत वाला महीना बना लेते । 

उसको अरबी जुबान में " नसीअ " कहा जाता है । कुरआन ने कहा कि इस तरह खुद से किसी माह को जंग के लिए हलाल या हराम ठहरा लेना उनकी दूसरी कुफ्रयात की तरह यह भी एक हरकत है ।

 हिरी व हवस ( लालच ) की पट्टी उनकी आंखों पर पड़ गई है और यह राह गटक चुके हैं । उनकी बदनियती की वजह से अल्लाह तआला ने उनको सही राह नहीं दिखायी क्योंकि वह कुफ़ करने और उस पर हठ करने वालों को राह नहीं दिखाता । बात बिल्कुल स्पष्ट है कि सत्य व मार्गदर्शन हर इंसान का हिस्सा नहीं है । 

कुफ्र व शिर्क की आलूदगी से अल्लाह ही जिसे चाहे निकाले । यह सब कुछ अल्लाह ही की मशीयत व मर्जी पर निर्भर है । इंसानी नस्ल के अंदर हर किस्म हर प्रकार और हर रंग के इंसान कल भी थे और आज भी हैं । 

सही राह पर भी हैं और गुमराह भी हैं । सीधी राह व गुमराही स्पष्ट करके अल्लाह ने इंसान को अधिकार दे दिया है कि वह जिसे चाहे अपनाये । 

जिस की फितरत नेक होती है , दिल साफ़ सुथरा होता है , वह अल्लाह की कृपा से हक़ व हिदायत को अपना लेता है , और जिसकी फ़ितरत नूरे हिदायत से ख़ाली होती है वह गुमराही के दलदल में फंसा रहता है । अल्लाह की नज़रे रहमत भी उसकी तरफ़ मुतवज्जेह नहीं होती है ।  

सूरः तौबा मदीना में अवतरित हुई । मुसलमानों और मुश्रिकीन के दर्मियान समझौता था और मुश्रिकीन ने वादा खिलाफ़ी करके उसे तोड़ दिया । 

चंद ही मुश्रिकीन ने वादा ख़िलाफ़ी नहीं की । ऐसे ही वादा तोड़ने वाल और जंग पर उतारूं मुश्किरीन के बारे में यह हुक्म है कि इन्हें जहां पाओ मारो । और वादे के पाबंद मुश्किीन के बारे में कुरआन फ़रमाता है । 

मगर वह मुश्रिक जिनसे तुम्हारा मुआहदा था फिर उन्होंने तुम्हारे वादे में कुछ कमी नहीं की । और तुम्हारे मुकाबिल किसी को मदद न दी तो उनका वादा ठहराई हुई मुद्दत तक पूरा करो । बेशक अल्लाह परहेज़गारों को दोस्त रखता है । ( आयत ४ सूरः तौबा , पारा १० ) 

इसके बाद ही वह आयत है जिसे काफिर की सूचि के अंदर नंबर एक पर रखा गया है कि मुश्रिकीन को जहां पाओ पकड़ो कैद करो हर जगह उनकी ताक में बैठो । यह हुक्म वादा ख़िलाफ़ी व बगावत व सरकशी . खुद जंग करने और दूसरे किसी दुश्मन की मदद करने की वजह से है । और वादा पूरा करने वालों के साथ मुद्दते अहद को पूरा करने का हुक्म है , इसके अतिरिक्त कुरआन ने यह भी कहा है कि : अगर कोई मुश्रिक तुम से पनाह मांगे तो उसे पनाह दो कि वह अल्लाह का कलाम सुने फिर उसे सुरक्षित जगह पहुंचा दो । ( आयत ६ , सूरः तौबा . पारा १० ) 

करीब के काफ़िरों से लड़ने के बारे में सूचि के नंबर ४ में जो हुक्म है

उसका मतलब यह है कि दूर व नजदीक के काफिगम माथापक माय जंग नहीं की जा सकती । करीब के वह लोग जो तुम्हारी दुश्मनी पर आमन्ट हैं । तुम्हारी राह में कांटे बिछा रहे हैं । तुम्हारे पैगाम के साथ इसी महाक का रहे हैं तुम्हारा अपमान कर रहे हैं । तुम्हारे दोस्तों को तंग कर रहे हैं । और तुम्हारे दुश्मनों से मिले हुए हैं । 

पहले उनको सही राह पर कर लो दनक साथ निपट लो फिर आगे की बात सोचो । सूचि के नंबर २४ में एस ही दुश्मनों व | लड़ने का हुक्म है । जिसके बाद वह तुम्हारे अधीन व रुसवा हाँग । मुसलमानों को अल्लाह की मदद मिलेगी और उनके दिल ठंडे होंगे । मक्का की जीत के बाद एक साल बाद ६ हि . में सूरः तौबा का अदरतण हुआ है । दस ज़िलहिज्जा को मक्का के करीब जुमराए उक्चा के पास चीय खलीफ़ा हज़रत अली मुर्तजा ने सूरः तौबा की तीस या चालीस आयतं तिलादत ( पाठ ) की और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के यह चार संदर हाजियों को पहुंचाये । इस साल के बाद कोई मुश्रिक खाना काबा के पास न आये । काई शख्स नंगा होकर खाना काबा का तवाफ़ ( चारों तरफ़ चक्कर लगाना ) न करे । जन्नत में सिर्फ ईमान वाले दाखिल होंगे । 

रसूल करीम के साथ जिसका अहद है वह अहद अपनी मुद्दत तक रहेगा । और जिनकी कोई मुद्दत तय नहीं उसकी अवधि चार माह बाद ख़त्म हो जायेगी । मुश्रिकीन ने यह सुनकर कहा कि ऐ अली ! अपने चचा के बेट ( गन्दर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) को खबर दे दीजिये कि हम = अब्द तोड़ दिया है । भाला व तलवार चलाने के सिवा हमारे और उनके दर्मियान कोई अहद नहीं है । 

तलवार चलाने और भाला चलाने का चैलेंज देकर ललकारने वालों और | मैदाने जंग की तरफ कदम बढ़ाकर आग और खून की बारिश करने वालों में न दोस्ती का हाथ मिलाया जाता और न उनकी गर्दन फूल माला से लादी जाती है । बल्कि बढ़कर उनसे दो - दो हाथ किया जाता है । और अपनी तलवार से या हो सके तो उन्हीं की तलवार से उनकी गर्दन उड़ा दी जाती है । यह एक आम उसूले जंग है । 

और सारी दुनिया की वहादुर व गैरत मंद कोमें इसी उसूल पर अमल पैरा हैं । कल भी यही उसूल था , आज भी यही उसूल है , और आइंदा भी यही उसूल दुनिया भर में जारी और चलता रहेगा । ६. सूरः अहज़ाब की आयत नं . ६१ और ६२ जिनका अनुवाद इस सूचि के नंबर ६ में दर्ज है ।

 इन दोनों आयतों से पहली वाली आयत भी नक्ल कर दी जाती तो बात साफ़ थी मगर इंतहा पसंद अनासिर और इस्लाम दुश्मन ताकतों को तो बदगुमानी और गड़बड़ी फैलाकर अवाम व ख़वास में मतभेद व तनाव पैदा करना है इसलिये वह पूरी बात क्यों नक्ल करेंगे ?

 वह आयत यह है : और अगर बाज़ न आये मुनाफिक और जिनके दिलों में बीमारी है और | मदीना के अंदर झूट उड़ाने वाले तो ज़रूर हम तुम्हें उन पर शह दंगे तो वह मदीना में तुम्हारे पास थोड़े ही दिन रह पायेंगे । ( आयत ६०. सूरः अहजाब )

 मदीना के अंदर रहकर जो लोग मुसलमानों के दर्मियान मतभेद व गहनी पैदा करने की कोशिश करेंगे , झूटी ख़बरें उड़ायेंगे . अफवाह फैलायेंगे के मुसलमानों को शिकस्त होने वाली है । उनके पास कोई कुव्वत नहीं । 

यह कमजोर बे असर हैं । और दुश्मन का लश्कर चढ़ा चला आ रहा हो तो जाहिर है कि ऐसे मुनाफ़िक और साज़िशी लोगों का अंजाम यही होगा कि उनको बर्बाद कर दिया जाये । आगाही व मार्गदर्शन के बावजूद अपनी हरकतों से बाज़ न आने वाले मुनाफ़िक इसी सज़ा के हकदार हैं । 

पहले की उम्मतों में भी ऐसा ही दस्तूर था अब भी यही दस्तूर जारी है । और उसके अंदर आइन्दा भी कोई तबदीली नहीं होगी । इन मुनाफ़िकों ने ऐसी ऐसी दगा बाजियां व साज़िशें की . कि मुसलमान का जीना दुशवार कर दिया था । 

जंगे उहद में रईसुल मुनाफिकीन अब्दुल्लाह बिन उबइ मुसलमानों के साथ मैदाने जंग के करीब गया और फिर ख़तरनाक हालात में साथ छोड़कर अपने तीन सौ आदमी लेकर वहां से अलग हो गया । 

गज्वए खंदक के मौके पर जब कि दस हज़ार दुश्मनों का लश्करे जर्रार मुसलमानों के मुकाबले में था । यही मुनाफ़िकीन इस तरह मुसलमानों के दरमियान बद दिली फैलाने की कोशिश कर रहे थे कि : 

और जब कहने लगे मुनाफ़िक और जिनके दिल में बीमारी थी कि अल्लाह और उसके रसूल का वादा एक फ़रेब था । और जब इन मुनाफिकीन के एक गिरोह ने कहा कि ऐ मदीना वालो ! यहां तुम्हारे ठहरने की जगह नहीं तुम घरों को वापस चलो । और उनमें से एक गिरोह नबी से अपनी वापसी की इजाज़त मांग रहा था कि हमारे घर बे हिफ़ाज़त हैं । 

जब कि वह बे हिफाज़त न थे । यह मुनाफिक तो बस भागना चाहते थे । ( आयत 12-13 . सूरह अहज़ाब , पारा 22 ) 

21. सूरह तौबा की आयत 29 के अंदर अहले किताब से लड़ने का हुक्न जो न अल्लाह को मानें न आख़िरत के दिन को मानें न अल्लाह व रसूल के मना किये को मानें न दीने हक की पैरवी करें साथ ही फित्ना व फसाद व शर अंगेज़ी पर भी आमादा हों । और इसी आयत के आखिर में उनसे जिज्या लेने का भी इरशाद है ।

यहूद और नसारा ( मसीही ) जो अहले किताब हैं उन्होंने हज़रत उजैर | और हज़रत ईसा की अबनीयत ( बेटा समझना ) और साथ ही अलूहियत ( अल्लाह मानना ) का अकीदा गढ़ लिया था । अल्लाह ने जिस तरह अपने पैग़म्बरों पर ईमान लाने का हुक्म दिया है उसमें किसी तरह का परिवर्तन करने वालों का ईमान सही और मोतबर नहीं है । 

मदीना तैय्यबा और मक्का मुकर्रमा के अंदर जब पूरे तौर पर मुसलमानों का अधिकार हो गया और यह अहले किताब हसद व जलन व नफ़रत व | दुश्मनी व साज़िश की अपनी मुहिम से बाज़ नहीं आये तो उनके लिये हुक्म हुआ कि वह यहां अब अपनी पुरानी रविश से बाज़ आ जायें । अमन व सलामती के साथ रहें । उनके साथ कोई जोर ज़बरदस्ती नहीं होगी ।

 ईमान कुबूल नहीं करते तो यह उनका इख़्तेयार है । हां अपनी हिफाजत के लिये.अब वह जिज्या अदा करें और उनकी पूरी ज़िम्मेदारी और उनकी जान व माल व इज्जत व आबरू की सुरक्षा हमारे ऊपर है । 

जिज़्या व खिराज की अदायगी में अगर अहले जिम्मा काफ़िर कुछ विलम्ब करें या रोक दें तब भी उनको जिस्मानी तकलीफ़ नहीं दी जाती थी । जब कि ज़कात और फ़सल पर उश ( कर ) की अदायगी में कोई साहिबे निसाब मुसलमान ऐसा करता तो इसके साथ पूरी सख्ती बरती जाती थी ।

 इमाम आज़म अबू हनीफ़ा के शागिर्द रशीद काज़ी उल कज़ात इमाम अबू यूसुफ लिखते हैं : एक सहाबी हकीम बिन हिशाम ने हम्स के एक अधिकारी को देखा कि जिज़्या की अदायगी के सिलसिले में उस ने कुछ लोगों को धूप में खड़ा कर रखा है तो उन्होंने फ़रमाया !

 यह क्या है ? मैंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को फ़रमाते हुए सुना है कि जो लोग दुनिया में लोगों को तकलीफ देंगे अल्लाह तआला उन्हें आख़रत में अज़ाब देगा । ( किताबुल खिराज , सफा ११५ , बहकी सुनन जिल्द ६ सफा २०५ )

 इस्लाम के चौथे ख़लीफ़ा हज़रत अली मुर्तज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु ने खिराज वसूल करने वाले अपने एक अफ़सर को तहरीरी हिदायत दी थी कि : " जब तुम उनके पास पहुंचो तो उनकी सर्दी व गर्मी के कपड़े और खाने की चीजें न बेच लेना न उनकी ज़रूरत वाले जानवरों को लेना न उनमें से किसी को एक कोड़ा भी लगाना न मुतालबात के लिये इन्हें पैरों पर खड़ा करना न वसूली के सिलसिले में इनके किसी माल को बेचना । 

क्योंकि हमें हुक्म दिया गया है कि इनसे ज़रूरत से ज़्यादा माल में से कुछ लें । अगर तुमने इस हुक्म की अवहेलना की तो मुझ से पहले अल्लाह तुम्हें पकड़ेगा और अगर मुझ तक इसकी अवहेलना की बात पहुंची तो मैं तुम्हें निष्कासित कर दूंगा । अफ़सर ने कहा तब तो मैं इसी तरह ( खाली हाथ ) लौटूंगा जैसे जा रहा हूं , आपने फ़रमाया ! चाहे खाली हाथ इसी तरह लौट आना पड़े । ( किताबुल खिराज सफा ११६ , सुनन बहक़ी जिल्द ६ सफा २०५ ) 

स्पष्ट हो कि इस्लाम फैलने के बाद ज़कात और जिज़्या की वसूली का हुकूमती सतह पर एक निज़ाम कायम था । इस्लाम के चारों खुल्फा हज़रत अबू बक्र सिद्दीक , हज़रत उमर फारूक , हज़रत उसमान गनी , हज़रत अली मुर्तजा , जिन्हें खुल्फाए राशिदीन कहा जाता है उनकी हुकूमत के दौर में बैतुल माल के ज़रिया उनकी वूसली का इंतज़ाम था ।

 जिन मुसलमानों पर ज़कात फर्ज़ थी उनसे हुकूमत के ज़िम्मेदार जिन्हें आमिलीन व मुहस्सेलीन जकात ( ज़कात वसूल करने वाले ) कहा जाता था वह विभिन्न इलाकों में नियुक्त थे जो अमीरों और मालिके निसाब मुसलमानों से ज़कात वसूल करके बैतुल माल में जमा करते थे और फिर उसे गरीबों के दर्मियान बांट दिया जाता था । उसी तरह थोड़ा सा जिज़्या भी गैर मुस्लिम रियाया से सालाना वसूल किया जाता था । 

फिर बाद के दौर में जकात और जिज्या की इस वसूली का निज़ाम ढीला पड़ता चला गया । जब कि इस्लागी सल्तनत की सरहदें काफ़ी विस्तृत हो रही थीं । अब सदियों से बेतुलगाल और हुकूमती रातह पर ऐसी किसी वसूली का किसी भी मुस्लिम मुल्क में कोई कानून व रिवाज नहीं ।

 इस वक्त दुनिया भर में दर्जना मुस्लिम देश हैं , किन्तु कहीं भी किसी तरह जोर व जबरदस्ती या स्वेच्या के साथ हर मुसलगान से ज़कात वसूल करने का इंतिज़ाम है और न ही किसी एक भी गैर मुस्लिम से कोई जिज्या लिया जाता है । 

२. अहले किताब से संबंधित उपरोक्त आयत से पहले की आयत २८ सूर तौबा में कहा गया है कि मुशिरक अपवित्र हैं । इसलिये मरिजदे हराम ( मक्का ) के पास न आयें । अगर कुछ लोग यह समझते हैं कि मौसमे हज में उन मुश्रिकीन के न आने से कुछ व्यापारिक व आर्थिक फर्क पड़ेगा तो उनकी यह सोच सही नही है । अल्लाह तआला अपने फ़ज़ल और बारिशे रहमत से मुसलमानों को नवाजता ही रहेगा । 

अल्लाह तबारक व तआला ख़ालिक व मालिक कायनात है । वह वाजिबुल वजूद और यकता व यगाना है । उसकी ज़ात व सिफ़ात में कोई शरीक व बराबर नहीं । किसी को अल्लाह का शरीक समझना यह कल्बी व बातिनी निजासत है । और मुश्रिक इस निजासत से लिप्त हैं । 

अतः वह अंदर से नजिस है । अल्लाह तबारक व तआला शिर्क को किसी भी तरह गवारा नहीं फ़रमाता । शिर्क को क़ुरआन में जुल्मे अज़ीम कहा गया है । और यह भी इसी क़ुरआन में आया है कि अल्लाह तआला शिर्क और कुफ्र को हरगिज़ माफ़ नहीं फ़रमायेगा । इस गुनाह के अलावा जिसे चाहे वह माफ़ कर दे ।

 कुफ्र के किस्म में शिर्क सबसे बदतरीन किस्म हैं । अल्लाह की ज़ात या इसके किसी गुण में गैर अल्लाह को शरीक करना अल्लाह की अवमानना और बग़ावत व सरकशी है । शिर्क सबसे बड़ा जुल्म है । और शिर्क व कुफ्र के बारे में कुरआन अज़ीम फरमाता है ।

 बेशक अल्लाह उसे नहीं बख़्शता कि उसके साथ कुफ्र किया जाये । और कुफ़ से नीचे जो कुछ है उसमें से वह जिसे चाहता है माफ़ कर देता है । और जिसने अल्लाह के साथ कुछ शिर्क किया उसने गुनाहे अज़ीम का तूफान बांधा । ( आयत ४८ , सूरः निसा , पारा ५ ) 

साफ़ साफ़ क़ुरआनी हुक्म यह है कि : और अल्लाह की इबादत करो और किसी को उसका शरीक न ठहराओ । ( आयत ३६ , सूरः निसा , पारा ५ ) 

और कहो , सब खूबियां अल्लाह की हैं जिसकी कोई औलाद नहीं और जिस के मिल्क में काई शरीक नहीं । ( आयत १११ , सूरः बनी इस्राईल , पारा १५ ) ( २० ) सूरः मायदा की आयत नंबर ५१ में बतलाया गया है कि यहूद व नसारा से मेलजोल और दिली मुहब्बत न रखो ।

 जो उनसे ऐसा संबंध रखेगा वह उन्हीं में से समझा जायेगा । मुनाफ़िकों का सरदार अब्दुल्लाह बिन उबै यहूदियों से गहरी दोस्ती रखता था । क्योंकि मुनाफ़िक और यहूदी दोनों की इस्लाम दुश्मनी एकसी थी ।

 और सारा ( मसीही ) भी ऐसी ही मानसिकता रखते थे । कुरआन ने हुक्म दिया कि उनके साथ मुहब्बत व दोस्ती न रखी जाये । यह एक दूसरे से मिलजुल कर इस्लाम के खिलाफ साज़िश करते रहते हैं । अपने खिलाफ साज़िश करने वाले दुश्मन से जानबूझ कर न कल कोई शख़्स दिल से मुहब्बत रखता था और न ही आज कोई भी शख़्स इसे गवारा कर सकता है । 

२२. सूरः मायदा की आयत नंबर १४ में बताया गया है कि नसारा ने अपने पैग़म्बर हज़रत ईसा और उन पर अवतरित किताब को मानने और उनके आदेशों पर अमल करने का जो अहद व पैमान किया था उसे तोड़ दिया । रसूलों की नाफरमानी की और इंजील पर अमल तर्क कर दिया । 

यहां तक कि उसके अंदर परिवर्तन भी कर डाला । उनका यह गुस्ताख़ाना अमल अल्लाह की नाराज़गी का कारण बना । अल्लाह की नज़रे रहमत इनसे फिर गई और उनकी बदनसीबी से उनके दर्मियान चिढ़ व दुश्मनी का जज्बा पैदा कर दिया गया । जिसे वह कयामत तक भुगतते रहेंगे । 

सूरः अंफाल की आयत ६६ और सूरः फ़तह की आयत २० के अंदर माले गनीमत का ज़िक्र है कि अल्लाह ने उसे तुम्हारे लिये हलाल और पवित्र बना दिया है ।

गनीमत किसे कहते हैं?

 जिहाद में मुसलमानों के दुश्मन जो धन दौलत छोड़कर भाग खड़े हों उसे गनीमत कहा जाता है । जिसका लेना और उसे अपने इस्तेमाल में लाना जायज़ है । लेकिन सिर्फ दुनियावी लालच और माले गनीमत हासिल करने की नीयत से जिहाद में हिस्सा लेना शरअन सख्त मना और सवाब से महरूमी का कारण है । 

इस्लामी देश और देशवासियों की सुरक्षा के लिये अगर किसी जिहाद का मरहला आता तो इसकी सारी ज़िम्मेदारी मुसलमानों पर हुआ करती है । इसके व्यय व ख़र्च सिर्फ मुसलमानों पर फ़र्ज़ होते थे , गैर मुस्लिमों पर इस फ़र्ज़ का कोई बार नहीं होता था । यहां मैं इस बात का थोड़ा स्पष्टीकरण मुनासिब समझता हूं कि माले गनीमत का हासिल करना मुसलमानों के जिहाद का मकसद नहीं हुआ करता था ।

 और जिहाद के सभी खर्च बर्दाश्त करने के अलावा इनकी अपनी जायदाद व मालियात में जो ज़कात का नियम रायज है उसके मुकाबले में जिज़्या कोई बोझ नहीं था । मुसलमानों के पास जो पालतू जानवर हुआ करते थे उनकी ज़कात इस्लामी हुकूमत के अधिकारी वसूल किया करते थे जब कि गैर मुस्लिम अपने पालतू जानवर जितनी तादाद में भी रखते उन्हें उसके बदले में हुकूमत को कुछ भी नहीं अदा करना होता था । 

माले तिजारत के अलावा जवाहरात , जेवरात व घरेलू सामान और लाखों करोड़ों नक़द की सूरत में जो कुछ भी होता उसमें से किसी गैर मुस्लिम को हुकूमत के लिये कुछ भी नहीं देना पड़ता था । दौलतमंद तब्का और आम नौकरी पेशा गैर मुस्लिमों से उनकी मर्जी के

मुताबिक एक मुकर्रर मामूली रकम सालाना वसूल की जाती थी । मालिके निसाव मुसलमानों के ऊपर ज़कात फ़र्ज़ है और फ़सल पर उश्य ( कर ) वाजिब है । जो इस्लामी हुकूमत उनसे वसूल किया करती थी । अब जब कि किसी मुल्क में इसका निज़ाम जारी नहीं रह सका तब भी यह दोनों फ़र्ज़ यानी जकात फसल का उश ( कर ) मुसलमानों को खुद अदा करने हैं ।

 फ़ितरा ( रोज़ा का ) उनके ऊपर वाजिब है इसके अलावा मौका मौका से कुछ न कुछ सदका व खैरात करते रहना भी इनके लिये मुस्तहब है । सोना - चांदी हो या माल तिजारत हो या पालतु जानवर हों । 

असल ज़रूरत से जो भी ज़्यादा हो उस पर मुसलमानों को आज भी ज़कात अदा करनी पड़ती है । यह उनकी अपनी निजी मज़हवी ज़िम्मेदारी है । और अगर कोई मुसलमान ऐसा नहीं करता और साहबे इस्तेताअत व मालिक निसाब होने के बावजूद ज़कात व उश निकाल कर उनके हकदार को नहीं देता तो अपने इस्लामी फ़र्ज़ की अदायगी में कोताही करके आख़रत की सख्त सज़ा और अजाब को दावत देता है । 

तोहफ़ा व नज़राना बाज व खिराज , लगान व टैक्स की कई सूरतें हिन्दुस्तान में पहले रायज थीं और आज भी किसी न किसी शक्ल में मौजूद हैं । और इस इक्कीसवीं सदी में तास्सुब व जानिबदारी का एक नमूना हमारे हिन्दुस्तान में यह है कि दस्तूरी तौर पर मुस्लिम दलित इन रियायतों से वंचित हैं जिन से हिन्दु दलित फ़ायदा उठाकर अपना जीवन स्तर ऊंचा कर रहे हैं । यह भारतीय संविधान की दफा ३४१ का नतीजा है ।

सरकारी मंत्रालयों व दफ्तरों और प्राईवेट इदारों व कप्मनियों में मुसलमानों के साथ जो खुला तास्सुब और अक्सर मौकों पर उनके साथ जो जुल्म व ज़्यादती होती है उसकी एक अलग दास्तान है ।

सूरः निसा की आयत १०१ सूरः तौबा की आयत २३ सूरः मायदा की आयत ५७ और सूरः निसा की आयत ८६ के अंदर बतलाया गया है कि अल्लाह व रसूल के साथ कुफ्र करने वाले और इस्लाम का इंकार करने वाले चाहे वह किताबी हों या गैर किताबी सत्य के मार्ग से भटके हुए हैं । गुमराह हैं । और अपनी इस्लाम दुश्मनी की वजह से मुसलमानों से हसद व दुश्मनी रखते हैं । 

इनको अपना हमदर्द और मददगार न बनाओ । ऐसे लोगों के साथ दिली मुहब्बत और दोस्ती न रखो । इस क़ुरआनी हुक्म के कई कारण इससे पहले गुज़र चुके हैं ।  

 सूरः निसा की आयत ५६ - सूरः अंबिया की आयत ६८ - सूरः सज्दा की आयत २२ - सूरः हा - मीम की आयत २७ - और उसी सूरः की आयत २८ - और सूरः तौवा की आयत ६८ के अंदर अल्लाह व रसूल पर ईमान न लाने वाले मुन्किर व काफ़िर को उनके कुफ्र व इंकार का बदला और जहन्नम के अज़ाब की खबर सुनाई गई है ।

 जिसका मतलब बिल्कुल स्पष्ट है । जो लोग भी अल्लाह व रसूल व क़ुरआन व आख़रत के दिन के मुन्किर हैं उनका ठिकाना जहन्नम ही है । 

25 १७ सूरः तौबा की आयत १११ के अंदर मुसलमानों की जान व माल के बदले में जन्नत की खुशखबरी दी गई है कि वह अल्लाह की राह में अपने इल्म अपनी अक्ल अपने तर्जुबा अपनी ज़बान अपने कलम अपने माल अपनी ताक़त और अपनी जान का कीमती नज़राना पेश करें । अपनी सारी तवानाई उसकी राह में खर्च करें । 

उसके आदेशों का पालन करें । अपने नफ्स और शैतान की बातों से दूर रहें । अल्लाह की इबादत और मखलूक की सेवा करें । ईमान व इस्लाम को जान व दिल से अज़ीज़ रखें । फिर उनके लिये आराम ही आराम और राहत ही राहत है । वह अपने नेक अमल व किरदार के बदले में जन्नत के हक़दार होंगे । यह अल्लाह का वादा और उसका फरमान है ।

 जिन चौबीस आयात पर कुछ लोगों को ऐतराज़ है उनमें से हर एक का यहां विश्लेषण करके सही कुरआनी मफ़हूम का स्पष्टीकरण कर दिया गया है । कई आयात का एक दसूरे से ख़ास संबंध है इसलिये उनमें से कुछ को एक साथ ही लिखकर ऐतराज़ को दूर किया गया है । 

जो ध्यान से पढ़ने के बाद हर उस व्यक्ति के लिये संतोषजनक और काफ़ी है जिसका उद्देश्य अपनी मानसिक उलझन दूर करना है । और मानसिक गड़बड़ी जिसके अंदर हो उसका हमारे पास कोई इलाज नहीं । जिन इंतेहा पसंद लोगों ने यह तय कर रखा है कि हमें हर हाल अपनी बकवास व फित्ना अंगेजी जारी ही रखनी है उन्हें समझाना बड़ा मुश्किल काम है । और ऐसे ही लोगों के बारे में कहा गया है कि उनसे दूर रहो । 

उनके दिल स्याह हैं इसलिये उनके साथ दिली दोस्ती नहीं की जा सकती । उन्हें अपने करतूतों की सज़ा आख़रत में मिल कर रहेगी । और ऐसे ही लोगों का ठिकाना जहन्नम है । अल्लाह व रसूल के मुन्किरों की इस्लाम दुश्मनी व कुरआन दुश्मनी की सज़ा जहन्नम के सिवा और क्या हो सकती है ? 

 दुनिया के किसी हिस्से में किसी एक भी मुसलमान की तरफ़ से किसी एक भी कुरआनी आयत को हटा दिये जाने की बात विल्कुल ये बुनियाद है । यह दुशमने इस्लाम की अफवाहबाज़ी और इसका सफेद झूट है ।  जिसका हकीकत से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है । 

काफ़िरों और मुनाफ़िकों की दोस्ती के बारे में बुनियादी हुक्म पहले लिखे जा चुके हैं । द्वेषपूर्ण , बुरा चाहने वाले , षड़यंत्रकारी और झगड़ालू व्यक्तियों से कोई स्वच्छ एवं स्वस्थ मस्तिष्क वाला व्यक्ति कभी दिली दोस्ती नहीं करता है । कुरआन की कुछ आयतें कुछ आयतों की व्याख्या करती हैं ।

 वह एक दूसरे से संबंधित हैं । अधार्मिकता , अज्ञानता और ख़राब नियत के साथ जो . व्यक्ति कुरआन समझने की चेष्टा करता है वह हिदायत ( सही रास्ता ) नहीं बल्कि गलत रास्तों में भटक कर रह जाता है । 

इस क़ुरआन से जहां बेशुमार वा - अदब बा - नसीब इंसान ईमान व इस्लाम की दौलत से मालामाल होते हैं । हक व हिदायत की नेमत से सरफ़राज़ होते हैं । वहीं बहुत से बे - अदब , बे - नसीब और बे - तौफीक लोग अपनी टेढ़ी और गलत मानसिकता के कारण गुमराही का सामान भी कर लेते हैं । 

काफ़िरो की एक जमाअत पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में आई और उसने कहा कि आप दूसरा कुरआन लाइये जिसमें हमारे बुतों की इबादत छोड़ने का हुक्म न हो या इसी कुरआन में कुछ परिवर्तन कर दीजिये हम आप पर ईमान ले आयेंगे । 

आपने आयात व खुदाई आदेशों में किसी प्रकार की कमी बेशी से इंकार करते हुए फ़रमायाः कि यह अल्लाह का कलाम है इसके अंदर अपनी तरफ से मैं कोई भी परिवर्तन और किसी प्रकार की कमी बेशी नहीं कर सकता । कुरआन इसी बात का ज़िक्र इस तरह करता है । 

और जब उनपर हमारी रौशन आयतें पढ़ी जाती हैं तो वह कहने लगते है जिन्हें हम से मिलने ( आख़रत ) की उम्मीद नहीं कि इसके सिवा और कुरआन लाइये या इसी को बदल दीजिये । तुम फ़रमाओ ! मुझे नहीं पहुंचता कि मैं अपनी तरफ से इसे बदल सकूँ । मैं तो इसी का ताबेअ हूं । 

जिसकी मेरी तरफ वही ( कुरआन ) होती है । मैं अगर अवमानना करूं तो मुझे बड़े दिन के अज़ाब का डर है । तुम फ़रमाओ ! अगर अल्लाह चाहता तो में इसे तुम पर न पढ़ता । न वह | तुमको इससे खबरदार करता । मैं इससे पहले तुम्हारे बीच एक उम्र गुज़ार चुका हूं क्या तुम्हें अकल नहीं ?

 इससे बढ़कर ज़ालिम कौन जो अल्लाह पर झूट बांधे । या उसकी आयतें झुटलाये । बेशक मुजरिम कामयाब न होंगे । ( आयत १५ से १७ सूरः यूनुस , पारा ११ ) तो क्या गौर नहीं करते कुरआन में । और अगर वह अल्लाह के सिता किसी के पास से होता तो ज़रूर इस में बहुत मतभदे पाते । ( आयत ८२. सूरः निसा . पारा ५ )

 मुताबिक एक मुकर्रर मामूली रकम सालाना वसूल की जाती थी । मालिके निसाब मुसलमानों के ऊपर ज़कात फ़र्ज़ है और फ़सल पर उश्य ( कर ) वाजिब है । जो इस्लामी हुकूमत उनसे वसूल किया करती थी । 

अब जब कि किसी मुल्क में इसका निज़ाम जारी नहीं रह सका तब भी यह दोनों फ़र्ज़ यानी जकात फसल का उस्र ( कर ) मुसलमानों को खुद अदा करने हैं । फ़ितरा ( रोज़ा का ) उनके ऊपर वाजिब है

 इसके अलावा मौका मौका से कुछ न कुछ सदका व खैरात करते रहना भी इनके लिये मुस्तहब है । सोना - चांदी हो या माल तिजारत हो या पालतु जानवर हों । असल ज़रूरत से जो भी ज़्यादा हो उस पर मुसलमानों को आज भी ज़कात अदा करनी पड़ती है । 

यह उनकी अपनी निजी मज़हवी ज़िम्मेदारी है । और अगर कोई मुसलमान ऐसा नहीं करता और साहबे इस्तेताअत व मालिक निसाब होने के बावजूद ज़कात व उश निकाल कर उनके हकदार को नहीं देता तो अपने इस्लामी फ़र्ज़ की अदायगी में कोताही करके आख़रत की सख्त सज़ा और अजाब को दावत देता है ।

 तोहफ़ा व नज़राना बाज व खिराज , लगान व टैक्स की कई सूरतें हिन्दुस्तान में पहले रायज थीं और आज भी किसी न किसी शक्ल में मौजूद हैं । और इस इक्कीसवीं सदी में तास्सुब व जानिबदारी का एक नमूना हमारे हिन्दुस्तान में यह है कि दस्तूरी तौर पर मुस्लिम दलित इन रियायतों से वंचित हैं जिन से कुछ लोग फ़ायदा उठाकर अपना जीवन स्तर ऊंचा कर रहे हैं । यह भारतीय संविधान की दफा ३४१ का नतीजा है । 

  सूरः निसा की आयत १०१ सूरः तौबा की आयत २३ सूरः मायदा की आयत ५७ और सूरः निसा की आयत ८६ के अंदर बतलाया गया है कि अल्लाह व रसूल के साथ कुफ्र करने वाले और इस्लाम का इंकार करने वाले चाहे वह किताबी हों या गैर किताबी सत्य के मार्ग से भटके हुए हैं ।

 गुमराह हैं । और अपनी इस्लाम दुश्मनी की वजह से मुसलमानों से हसद व दुश्मनी रखते हैं । इनको अपना हमदर्द और मददगार न बनाओ । ऐसे लोगों के साथ दिली मुहब्बत और दोस्ती न रखो । इस क़ुरआनी हुक्म के कई कारण इससे पहले गुज़र चुके हैं । 

 सूरः निसा की आयत ५६ - सूरः अंबिया की आयत ६८ - सूरः सज्दा की आयत २२ - सूरः हा - मीम की आयत २७ - और उसी सूरः की आयत २८ - और सूरः तौबा की आयत ६८ के अंदर अल्लाह व रसूल पर ईमान न लाने वाले मुन्किर व काफ़िर को उनके कुफ्र व इंकार का बदला और जहन्नम के अज़ाब की खबर सुनाई गई है ।

 जिसका मतलब बिल्कुल स्पष्ट है । जो लोग भी अल्लाह व रसूल व क़ुरआन व आख़रत के दिन के मुन्किर हैं उनका ठिकाना जहन्नम ही . है । 

 सूरः तौबा की आयत १११ के अंदर मुसलमानों की जान व माल के बदले में जन्नत की खुशखबरी दी गई है कि वह अल्लाह की राह में अपने इल्म अपनी अक्ल अपने तर्जुबा अपनी ज़बान अपने कलम अपने माल अपनी ताक़त और अपनी जान का कीमती नज़राना पेश करें ।

 अपनी सारी तवानाई उसकी राह में खर्च करें । उसके आदेशों का पालन करें । अपने नफ्स और शैतान की बातों से दूर रहें । अल्लाह की इबादत और मखलूक की सेवा करें । ईमान व इस्लाम को जान व दिल से अज़ीज़ रखें ।

 फिर उनके लिये आराम ही आराम और राहत ही राहत है । वह अपने नेक अमल व किरदार के बदले में जन्नत के हक़दार होंगे । यह अल्लाह का वादा और उसका फरमान है । जिन चौबीस आयात पर कुछ लोगों को ऐतराज़ है उनमें से हर एक का यहां विश्लेषण करके सही कुरआनी मफ़हूम का स्पष्टीकरण कर दिया गया है । 

कई आयात का एक दसूरे से ख़ास संबंध है इसलिये उनमें से कुछ को एक साथ ही लिखकर ऐतराज़ को दूर किया गया है । जो ध्यान से पढ़ने के बाद हर उस व्यक्ति के लिये संतोषजनक और काफ़ी है जिसका उद्देश्य अपनी मानसिक उलझन दूर करना है । 

और मानसिक गड़बड़ी जिसके अंदर हो उसका हमारे पास कोई इलाज नहीं । जिन इंतेहा पसंद लोगों ने यह तय कर रखा है कि हमें हर हाल अपनी बकवास व फित्ना अंगेजी जारी ही रखनी है उन्हें समझाना बड़ा मुश्किल काम है । 

और ऐसे ही लोगों के बारे में कहा गया है कि उनसे दूर रहो । उनके दिल स्याह हैं इसलिये उनके साथ दिली दोस्ती नहीं की जा सकती । उन्हें अपने करतूतों की सज़ा आख़रत में मिल कर रहेगी । और ऐसे ही लोगों का ठिकाना जहन्नम है । अल्लाह व रसूल के मुन्किरों की इस्लाम दुश्मनी व कुरआन दुश्मनी की सज़ा जहन्नम के सिवा और क्या हो सकती है ? 

हज़रत उमर रदि अल्लाहु अन्हु का इस्लाम कैसे कबूल किया

 मुसलमान अभी अपने घरों में छुप छुपकर नमाजें पढ़ रहे थे । उन्हीं दिनों में उमर बिन खत्ताब एक दिन हथियार - बंद होकर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को कत्ल करने के इरादा से निकले । रास्ते में उन्हें अचानक एक खबर मिली कि उनकी बहन और बहनोई ने इस्लाम स्वीकार कर लिया है । वह गुस्सा से तिलमिला उठे । गुस्से के आलम में बहन के घर पहुंचे और बहन व बहनोई को मार मारकर लहू लुहान कर दिया । उनकी बहन ने कहा कि ऐ उमर ! पहले तुम वह क़ुरआन सुन लो जिसे सुनकर हम ईमान लाये हैं ।

 अगर वह तुम को ठीक न लगे तो हमें मार डालना । उमर फारूक ने कहा अच्छा मैं उसे सुन लेता हूं । एक सहावी जो उमर फारूक बिन ख़त्ताब के आ जाने की वजह से डर के मारे घर के अदंर ही छुप गये थे वह बाहर निकले और उन्होंने सूरः ताहा का पहला रुकू पढ़ा । 

उमर ने उसे सुना तो उनके दिल की दुनिया बदल गई और दारे अरकम ( मक्का मुकर्रमा ) जहां पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उपस्थित थे वहां पहुंच कर अपने ईमान व इस्लाम का ऐलान कर दिया । कुछ और आगे बढ़ने से पहले बेहतर यह है कि इस्लामी शरीयत की चंद इस्तेलाहात ( शब्दकोष ) को आप ध्यान से समझ लें ।

 कुफ्र : 

किसी चीज़ का ढांकना , छुपाना , और इस्लामी शरीयत के शब्दकोष में फरायज़ व अरकाने इस्लाम के इंकार को कुफ्र कहा जाता है ।

 काफ़िर :

 वह चीज़ जो दूसरे को ढांकने और छुपाने वाली हो । जो व्यक्ति किसी चीज़ की नाशुक्री और इंकार करने वाला हो । और इस्लामी शरीयत के शब्दकोष में उसे काफ़िर कहा जाता है जो इस्लाम और उसके बुनियादी अहकाम का इंकार करने वाला हो । 

शिर्क : 

किसी चीज़ में दूसरे की साझेदारी । और इस्लामी शरीयत के शब्दकोष में शिर्क यह है । अल्लाह की ज़ात या उसकी किसी सिफत ( गुण ) में गैर अल्लाह को साझी समझना ।

 मुश्रिक : 

किसी चीज़ में किसी दूसरी चीज़ को शामिल करने वाला । और इस्लामी शरीयत के शब्दकोष में मुश्रिक यह है । अल्लाह की ज़ात या उसकी किसी सिफ़त ( गुण ) में गैर अल्लाह को साझी समझने वाला ।

 जिहाद : 

जिद्दो जेहद , कोशिश व मेहनत , और शरीयत के शब्दकोष में अल्लाह की खुशी के लिये किसी तरह की भाग दौड़ , त्याग व बलिदान , अपने चिन्तन व विचार , उपदेश व कर्म , ज़बान व कलम , माल व दौलत , तलवार तीर , ताकत व बहुमत किसी भी तरह से इंसानियत की सेवा करना । उन्नति व इस्लाम की मजबूती के लिए प्रयत्नशील रहना और रब्बे कायनात की खुशी तलब करना ।

 मुजाहिद : 

मेहनत और कोशिश करने वाला । और शरीयत में मुजाहिद वह व्यक्ति है जो उपरोक्त जिहाद की किस्मों में से किसी भी तरह से अल्लाह की राह में इसकी प्रसन्नता के लिये स्वयं जिहाद कर रहा हो या जिहाद करने वाले की मदद कर रहा हो ।

 ईमान : 

किसी चीज़ का मानना , अकीदा रखना , और इस्लामी शरीयत के 

 बहुत से सरफिरों ने क़ुरआन के रब्बानी कलाम होने का इंकार किया और कहा कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कुछ कलमात अपनी तरफ़ से गढ़ लिये हैं । क़ुरआन ने कहा कि अगर ऐसा ही समझते हो तो तुम भी कोशिश करके इसके मुकाबले में कुछ पेश करो मगर हरगिज़ तुम ऐसा कलाम नहीं बना सकते । कई जगह क़ुरआन ने इंकार करने वाले व काफ़िरीन से इसकी मांग की है । 

यह कहते हैं कि इन्होंने इसे अपने आप बना लिया है तुम फ़रमाओ ! ऐसी ही दस सूरतें तुम भी बना लाओ । और अल्लाह के सिवा जो मिल सकें सब को बुला लो अगर तुम सच्चे हो । तो ऐ मुसलमानों ! 

अगर वह तुम्हारी इस बात का जवाब न दे सकें तो समझ लो कि अल्लाह के इल्म ही से यह उतरा है । और यह कि उसके सिवा कोई सच्ची इबादत के लायक नहीं तो क्या अब तुम मानोगे ? ( आयत १३-१४ सूरः हूद , पारा १२ ) 

और अगर तुमको कुछ शक हो इसमें जिसे हमने अपने खास बंदे पर उतारा है तो इस जैसी एक सूरत तो ले आओ और अल्लाह के सिवा अपने सब हिमायतियों को बुला लो । 

अगर तुम सच्चे हो । फिर अगर न ला सको और हरगिज़ नहीं ला सकते तो डरो उस आग से जिसका ईंधन आदमी और पत्थर हैं । जो काफिरों के लिये तैयार रखी है । ( आयत २३ - सूरः बकर , पारा १ ) 

तुम कहो ! अगर इंसान और जिन्न सब मिल कर इस क़ुरआन की मानिंद लाना चाहें तो इसका मिस्ल न ला सकेंगे । अगरचे वह एक दूसरे के मददगार हों । ( आयत ८८ , सूरः बनी इस्राईल . पारा १५ ) 

कुरआन के ख़िलाफ़ शोर व गुल , शोरिश व हंगामा आज कोई नई बात नहीं । अरब के काफ़िर भी ऐसा ही किया करते थे । जैसा कि क़ुरआन बयान करता है : और काफ़िर बोले ! यह कुरआन न सुनो ! और इसमें बेहूदा शोर व गुल करो । शायद यूं ही तुम गालिब आओ । ( आयत २६ , सूरः हा - मीम अत्त - सज्दा , पारा २४ )

 कुरआन के अंदर न कोई परिवर्तन हो सकता न किसी प्रकार की कमी बेशी हो सकती है और न इसका कोई जवाब हो सकता है क्योंकि स्वयं इस | सृष्टि का पैदा करने वाला इरशाद फ़रमाता है : बेशक हमने यह क़ुरआन उतारा है और हम ही इसके मुहाफ़िज़ व निगहबान हैं । ( आयत ६ सूरः अलहज , पारा १४ ) 

मक्का के काफ़िरों ने इस्लाम के प्रारम्भिक दिनों में जब मुसलमानों को | सताया और उनकी यातनाएं असहनीय होने लगी तो चंद मुसलमानों की एक टुकड़ी ने मुल्के हब्श जाकर शरण ली । 

यह घटना मदीना की हिजरत से पहले । की है । हब्श का शासक असहमा नजाशी था । यह बादशाह ईसाई था । मक्का | के काफ़िरों ने हब्श तक मुसलमानों का पीछा किया और नजाशी से मिलकर उनकी शिकायत की ताकि वह चंद मजबूर मुसलमान उनके हवाले कर दिये 

नाखूब सब कुछ इस्लाम ने वाजेह कर दिया है । इसकी दावत सारे आलमे इंसानियत में आम हो चुकी है । अतमामे हुज्जत का मरहला मुकम्मल हो चुका है । किसी का यह उज़ काबिले कबूल नहीं कि हम तक इस्लाम की दावत और इसका पैगाम नहीं पहुंचा ।

 अब जो चाहे वह ईमान लाये और जो चाहे वह कुफ्र करे । यह उसका अपना इंतिख़ाब व इखोयार है । ख़ातिमन नबीईन हज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद अब कयामत तक कोई नबी नहीं आने वाला है । जिहाद हुल्लड़ बाज़ी व फ़ित्ना व फ़साद का नाम नहीं है ।

 जिहाद कहा जाता है अल्लाह की खुशी के लिये उसकी राह में तन मन धन रवान कर देने को । 

ज़िन्दगी के जिस पहलू में जिस अंदाज़ से भी अल्लाह की खुशी के लिये कोशिश की जाये उसे जिहाद कहा जायेगा । ताक़त के द्वारा ज़वान के द्वारा , माल के द्वारा , संबंध के द्वारा , शिक्षा के द्वारा , अनुभव के साधन , भाग दौड़ के द्वारा , जिस तरह भी संभव हो और जो माध्यम व साधन उपलब्ध हों उनके इस्तेमाल को जिहाद कहा जाता है । 

अपने इन्द्रि और उसकी शरारत से लड़ना बहुत बड़ा जिहाद है । और ज़ालिम शासक के सामने सच बात कह देना सबसे बड़ा जिहाद है । किसी चलते फिरते आदमी , किसी बारात घर , किसी इबादत गाह , और वृद्धों , अपाहिजों , औरतों , बच्चों को दिन के उजाले या रात के अंधेरे में बे वजह व बे सबब निशाना बनाने का नाम जिहाद नहीं है । 

इसी तरह किसी ट्रेन , बस के उड़ाने और जहाज़ को अपहरण करके अमन की फिज़ा ख़राब और माहौल बिगाड़ने का नाम भी जिहाद नहीं है । शरई ज़रूरत , भौतिक तैयारी , व्यक्तिगत | ताक़त , इमारत ( अमीरे जिहाद ) जैसी शर्तों से बे फिक्र होकर किया जाने वाला कोई हमला या जंग इस्लामी जिहाद नहीं है । बहुमत , कुर्सी , और व्यक्तिगत , राजनीतिक लक्ष्य को पूरा करने के लिये की जाने वाली लड़ाई इस्तेलाही जिहाद नहीं ।

 हां ! जहां जिहाद की शर्ते पाई जायेंगी वहां जिहाद किया जाना ज़रूरी है और योग्यता के अनुसार उसमें हिस्सा लेना यकीनन सवाब का काम है ।

 हिन्दुस्तान के अंदर पच्चीस पचास साल के दौरान ऐसा कोई इस्लामी जिहाद व क़ताल हमें तो नज़र नहीं आया और न ही किसी ऐसे शरई जिहाद का उल्मा ने फ़तवा दिया है । 

फिर जिहाद जिहाद की रट लगाकर क़ुरआन और मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुस्तान भर में कुछ लोग एक दहशतगर्दाना आंदोलन क्यों चला रहा है ?

 और नफ़रत के जीवाणु हिन्दुस्तानी समाज में क्यों फैला रहा है ? 

इस सवाल पर अमन पसंद हिन्दुस्तानियों को गंभीरता के साथ विचार करना चाहिये ।

 विभिन्न अवसरों पर क़ुरआन ने कहा कि अल्लाह तआला जुल्म व ज़ालिमों को कभी पसंद नहीं फ़रमाता । दंगा और दंगायियों को भी पसंद नहीं फ़रमाता । ऐ लोगो ! तुम जुल्म न करो , दंगा न फैलाओ । 

ज़मीन को ज़ुल्म व दंगा से दूर रखो , और किसी का नाहक कत्ल न करो । और उसकी यह हिदायत आम है कि : जिसने कोई जान कत्ल की बगैर जान के बदले या ज़मीन में झगड़े के बिना तो ऐसा है जैसे उसने सब लोगों को क़त्ल किया । और जिसने एक जान

 मायदा , पारा ६ ) 

को बचा लिया उसने जैसे सारे लोगों को ज़िन्दगी बख़्शी । इंसान तो इंसान है ।

 जानवरों के बारे में भी इस्लाम की शिक्षा दया व प्रेम का एक आला नमूना है । पैगम्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया : 

एक औरत को सिर्फ इस बात पर अज़ाब दिया गया कि उसने एक विल्ली को बंद कर दिया था और वह भूक से मर गई । इसकी वजह से उस औरत को जहन्नम में जाना पड़ा । ( सहीह बुख़ारी )

 एक आदमी कहीं जा रहा था उसे सख़्त प्यास लगी । वह कुंए में उतरा और उसमें से पानी पीकर बाहर निकला । इतने में उसने देखा कि एक कुत्ता प्यास के मारे हांप रहा है और मिट्टी चाट रहा है । 

उसने अपने दिल में सोचा कि इस कुत्ते को मेरी ही जैसी प्यास लगी है वह फिर कुएं में उतरा और अपने मोज़ों ( जुराबों ) में पानी भर कर उसे मुंह से पकड़ कर बाहर निकाला और कुत्ते को पानी पिलाया ।

 अल्लाह तआला को इसकी यह बात पसंद आई और उसकी मग़फ़रत ( गुनाहों से माफ़ी ) फ़रमा दी । लोगों ने पूछा या रसूलल्लाह !

 क्या जानवरों के साथ भलाई करने से भी हमें सवाब मिलेगा ? आपने इरशाद फ़रमाया , हर तर जिगर वाले ( जानदार ) में अज व सवाब है । ( सहीह बुख़ारी )

 प्रोपेगंडा यह किया जा रहा है कि हर काफ़िर व मुश्रिक से मुसलमान हर वक़्त जिहाद करना चाहते हैं ।

 जब कि आम ज़िन्दगी के मामलात के बारे में भी कुरआन का हुक्म यह है कि : अल्लाह तुम्हें उन लोगों के साथ एहसान और इंसाफ़ करने से मना नहीं करता जो दीन में तुम से न लड़े और तुम्हें तुम्हारे घरों से न निकाला । बेशक इंसाफ़ करने वालों को अल्लाह पसंद करता है ।

 अल्लाह तुम्हें उन्हीं से दोस्ती करने को मना करता है जो तुमसे दीन में लड़े या तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला या तुम्हारे निकालने पर मदद की और जो उनसे दोस्ती करें वही ज़ालिम हैं । ( आयत ६ - सूरः मुमतहिना , पारा , २८ )

 दूसरी कौमों के साथ अदल व इंसाफ़ का आदेश देते हुए कुरआन ने कहाः ऐ ईमान वालो ! अल्लाह के आदेश पर खूब कायम रहो इंसाफ़ के साथ गवाही देते हुए । और तुम को किसी कौम की दुश्मनी उस के साथ बे इंसाफ़ी पर न उभारे । इंसाफ करो वह परहेज़गारी के और अल्लाह से डरते रहो , बेशक उसे तुम्हारे कामों की । ८. सूरः मायदा , पारा ६ ) 

क़ुरआन और इस्लाम पर बढ़ बढ़कर हमले करने वाले सुनें कि झूठ व इल्ज़ाम तराशी व बदजुबानी की रोकथाम के लिये कुरआन ने कैसी हकीमाना तदबीर इख्तेयार की है ।

 झूठे खुदाओं के पुजारियों की व्यर्थ बातों का उसने किस तरह इलाज किया है । और अल्लाह के सिवा जिन्हें वह पूजते हैं उनको बुरा न कहो कि वह अपनी ज़्यादती व नादानी से अल्लाह की शान में बे अदबी ( अशिष्ट बातें ) करेंगे । ( आयत १०८ , सूरः अनआम , पारा ७ ) 

वचन व विश्वास और मुआहिदा के पालन का इस्लाम ने सख्त निर्देश दिया है ।

 यह वादा किसी से भी किसी तरह का और कहीं भी हो उसका पालन ज़रूरी है । 

कुरआन का हुक्म है और वचन पूरा करो बेशक वचन के बारे में तुम से सवाल किया जायेगा । ( आयत ३४ , सूरः बनी इस्राईल . पारा १५ )

 इस्लामी देश में अगर कोई काफ़िर किसी ज़िम्मा व मुआहिदा के साथ हो तो उसकी सुरक्षा भी जरूरी है । यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमायाः अगर कोई मुसलमान किसी मुआहिदा के अंतर्गत गैर मुस्लिम को कत्ल कर दे तो वह जन्नत की खुश्बू नहीं सूंघेगा । ( सहीह बुख़ारी ) 

हज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमायाः जिसने किसी जिज्या व संधि के अंतर्गत रहने वाले गैर मुस्लिम पर जुल्म किया या उसका अधिकार छीना , या उसकी ताक़त से ज़्यादा उस पर बोझ डाला , और उसकी इच्छा के बगैर उससे कोई चीज़ ले ली कयामत के दिन उसकी तरफ से मैं दावा करूंगा । ( अबू दाऊद , बेहकी )

 जिसने किसी जिज्या व संधि के अंतर्गत रहने वाले गैर मुस्लिम को तकलीफ़ दी उसने मुझे तकलीफ़ दी , और जिसने मुझे तकलीफ़ दी उसने अल्लाह को तकलीफ पहुंचाई । ( तबरानी ) पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अल्लाह ने पूरे ब्रहमांड के लिए रहमत बनाकर भेजा है । 

क़ुरआन भी रहमत है । और अल्लाह भी रहीम व करीम है और उसकी रहमत हर एक को घेरे हुए है । इस तरह की बहुत सी आयात कुरआन के अंदर मौजूद हैं । इस्लाम दुनिया के अमन का संरक्षक है । इसका संदेश विश्व व्यापी है । किसी विशेष क्षेत्र किसी विशिष्ट जाति और ज़माना लिये नहीं है 

न किसी स्थानीय व क्षेत्रीय संदर्भ में इसकी कोई सैद्धांतिक बुनियाद रखी गई है । कुरआन अल्लाह का कलाम है । वहीए रब्बानी ( अल्लाह का संदेश ) है । 

इसके किसी एक शब्द में भी आज तक कोई परिवर्तन न हुआ और न आइंदा इसकी कोई संभावना है । जैसा कि दूसरी इलहामी व गैर इलहामी किताबों में हो चुका है और इस वक़्त दुनिया का कोई मज़हब इसका दावेदार नहीं कि इसकी आसमानी किताब अपनी असल शक्ल में मौजूद है । 

इस्लाम पर हमला करने वालों और संघ परिवार को आइना दिखाते हुए अब जंग व जदल और सज़ा व अज़ाब के बारे में कुछ हुक्म निम्नलिखित लाइनों में अध्ययन करें और सोचें कि इनका कहीं से कोई धार्मिक संबंध है या नहीं ? 

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अगर है तो क्यों ? और नहीं है तो धार्मिक किताब के इस पाठ व हुक्म का समर्थक क्या जवाब देंगे ? 

वह अपने दिल पर हाथ रख कर खुद ही किसी सही निष्कर्ष तक पहुंचे और कोई फैसला कर लें । 

यजुर वेद में है :

 ( १ ) यो ऽ अस्मभ्यमरातोमाद्यश्च नो द्वेषते जनः । निन्दाद्यो अस्मान् धिप्साच्च सर्व तं भस्मसा कुरु ।। ( ११:८० ) अनुवाद : ऐ सभा और सेना के मालिक ! आप उन लोगों को जो 

धर्मात्माओं से दुश्मनी करें , जो हमारे साथ बदतमीज़ी करें , और हमें जलील करें , जो हमें नीचा दिखलावें , और हमारे साथ फ़रेब करें , उन सब लोगों को जलाकर पूरी तरह राख कर डालिये । 

( २ ) नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः । बाहु भ्यामुत ते नमः ।। अनुवाद : ऐ ( रुद्र ) शरीर दुश्मनों को रुलाने वाले बादशाह ! तेरे गुस्से से भरे बहादुर नफ़्स के लिये वज हासिल हो , और दुश्मनों को मारने वाली तरी जात के लिये अनाज हासिल हो , और तेरे बाजुओं से ( निकले ) वज्र दुश्मनों को हासिल हों । 

( ३ ) अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मस शिते । गच्छामित्रान् प्र पद्यस्व माऽषीकंचनोच्छिषः ।। ( १७:४५ ) 

अनुवाद : ऐ तीर अंदाज़ी में माहिर वेद के उलेमा से तारीफ़ और तालीम हासिल किये हुए सिपहसालार की औरत ! तू प्रेरणा को हासिल हुई , दूर जा दुश्मनों पर धावा बोल , और उसे मार कर फतह हासिल कर , उन दूर मुल्कों रहने वाले दुश्मनों को बगैर क़त्ल किये न जाने दे । 

( ४ ) वि न इन्द्र मृद्यो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः । यो अस्मां २ आमिभदासत्यधरं गमया तमः ।। ( १८:७० ) 

अनुवाद : ऐ ( इन्द्र ) आला तरीन कुव्वत वाली फौज के सरदार ! तू मारकों को बतौर ख़ास जीत । फौजों वाले दुश्मनों को ( हराकर ) ज़लील कर । जो हमें तबाह करने की ख्वाहिश रखता है उन्हें ख़ौफ़नाक तारीकियों में धकेल दे । 

इससे कहीं ज़्यादा वाजेह अर्थवेद में है : 

( ५ ) ममाग्ने वर्षो विहवेष्वस्तु वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम । मह्यं नमन्तां दिशश्चतस्रस्त्वयाध्यक्षेण पृतना जयेम ।। ५ : ३ : १ 

अनुवाद ( ऐ आग ) ! ऐ तमाम जानों की जान ! जंगों में मेरी रौशनी हो , हम लोग तुझ को रौशन करते हुए अपने जिस्म को पालें । चारों सिमतें हमारे लिये झुक जायें , तेरी सरबराही में हम लड़ाईयों को फतह करें । 

( ६ ) सर्वेषां च क्रिमीणां सर्वासां च क्रिमीणाम् । भिनछयश्मना शिरो दहाम्यन्तिना मुखम् ।। ( ५:२३:१३ )

 अनुवाद : और सब कीड़ों का , और सब कीड़ों की औरतों का सर पत्थर से मैं फोड़ता हूं और उनके चेहरों को आग से जलाता हूं । 

( ७ ) अक्ष्यौ निविध्य हृदयं निविध्य जिहां नि तृन्द्धि प्रदतो मृणीहि । पिशाचो अस्ययतमो जधासाग्ने यविष्ठ प्रति तंश्रृणीहि । ( ५ : २६ : ४ ) 

अनुवाद : इसकी दोनों आंखें छेद डाल , दिल छेद डाल , ज़बान काट ले , और दांतों को तोड़ दे , जिस किसी पिशाच ने गोश्त खाया , ऐ सबसे बड़ी ताकत वाले साहिबे इल्म , इसको वाजेह तौर पर टुकड़े टुकड़े कर डाल 

 ( ८ ) कृत में दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः । गाजिद्भूयासमश्वजिद् धनंजयो हिरण्यजित् ।। ( ७ : ५० : ८ ) 

अनुवाद : कर्म ( अमल ) मेरे दाहिने हाथ में है और फतह मेरे बायें हाथ में है , मैं ज़मीन जीतने वाला , घोड़े जीतने वाला और दौलत जीतने वाला रहूं । 

ऋग वेद में है कि : 

अपने मुल्क ( 6 ) एकोबहुनामसि मन्यो वीलितः विशं विशं युघये संशिशाधि । अकृत्तरुकत्वया युजावयम् धुमन्तं द्यौषं विजयाय कृरामहे ।। ( १० : ८४ : ४ )

 अनुवाद : मन्यो । दुश्मनों को पीस देने वाली मेरी कुव्वत ! तू अकेला ही तमाम दुश्मनों को कुचल देता है । इसलिये ऐ गैर मुख़्तमिम रौशनी वाले ! हम तेरे साथ मिलकर बुलंद आवाज़ से जयकार करते हैं और दीगर कुव्वतों को बताते हैं कि : 

( १० ) इन्द्रेणा मन्युनावयं अभिष्याम पृतन्यतः ।। अनुवाद : हम इंद्र खुदा की मदद और कुव्वत से मिलकर तमाम दुश्मनों को फतह कर लेते हैं । 

अथुर्वेद में है : 

( ११ ) अतिद्यावतातिसरा इन्द्रस्यवचसाहत । अविवृक इवमयनीत सवोजीवम्माभोचि प्राणस्यापि नहयत ।। ( ५:८४ ) 

अनुवाद : ऐ बहादुरो ! दौड़ो भागो , बढ़ो , अपने बादशाह के हुक्म से दुश्मन का खात्मा कर दो । जैसे भेड़िया भेड़ को पीस डालता है , तुम दुश्मन को पीस डालो , वह खतरनाक दुश्मन तुम से ज़िन्दा बच कर न जाये , उसकी जानों को में काट लो । 

( १२ ) येथिनो ये अरथाः असादा येच सादिनः । सर्वानदन्तु तान् हतान् गृध्राः श्येनः पतत्रिणः ।। ( ५ : ८ : १० ) 

अनुवाद : जो रथ वाले हैं या बगैर रथ के हैं , जो घुड़सवार हैं या पैदल , उन सब दुश्मनों को मारो , और उनके गोश्त को गधों के खाने के लिये छोड़ दो ।

 ( १३ ) यंग्राम भाविशते इदमुग्रंसहोयम । पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति न पाप मुपजायते ।। ( ४ : ३६ : ८ ) 

अनुवाद : ऐ आर्या ! तू ऐलान कर दे कि जहां जहां भी मेरी कुव्वते काहिरा | मौजूद है कोई आर्यों का दुश्मन पेशाच वहां सरकशी नहीं कर सकता । 

( १४ ) श्री कृष्ण , श्री अर्जुन की इस दुर्बलता को देखकर कहने लगे कि ऐ | धरती के सपूत ! कमज़ोरी व बुज़दिली न दिखाओ , यह तुम्हें शोभा नहीं देती । ऐ दुश्मनो को तबाह व बर्बाद करने वाले ! इस भय व कमज़ोरी को त्याग | कर जंग के लिये उठ खड़े हो जाओ । ( गीता पाठ १ , श्लोक २१-२२ )

 ( १५ ) श्री कृष्ण ने कौरवों के खिलाफ जंग का आदेश देते हुए कहाः ऐ अर्जुन ! अपराधियों व आक्रमणकारियों के सामने घुटने टेक देने पर इस | दुनिया में तुम्हें श्राप और पाप लगेगा । और तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी । ( गीता पाठ २ , श्लोक ३३-३४ )

( १६ ) श्री कृष्ण ने श्री अर्जुन को आदेश देते हुए कहा : ऐ कुन्ती के बेटे ! झूट और बुराई का साथ देने वालों के विरुद्ध युद्ध करते हुए मारे जाओगे , तो स्वर्ग में जाओगे । या तुम जीत जाओगे तो धरती पर शासन करोगे । इसलिये ठोस निश्चय व विचार के साथ उठ खड़े हो जाओ और युद्ध करो । ( गीता पाठ २ , श्लोक ३७ ) 

( १७ ) तालाब , बावली , कुंआ , जनता का घर ढाने वाले और निर्देष व्यक्तियों का वध करने वाले लोग नरक में जाते हैं । ( पुराण , पाठ ४ , श्लोक ३३ ) 

 इस्लाम व कुरआन पर कीचड़ उछालने वाले ठंडे दिल से सोचें कि क्या मुसलमान भी उनके दीन धर्म पर उनके देवी देवताओं पर उनकी धार्मिक किताबों पर इसी तरह कीचड़ उछाल रहे हैं । 

जिसका वह दिन व रात प्रर्दशन कर रहे हैं ? 

पच्चीस पचास साल का पूरा लिटरेचर और अखबारात व पत्रिका उठाकर देख लिया जाये तो अच्छी तरह समझ में आ जायेगा कि किस का दिल कौन दुखा रहा है ? 

और अमन व आमान का माहौल बिगाड़ने की लगातार कोशिश किस की तरफ़ से हो रही है ? 

ज़्यादा नहीं सिर्फ कुछ अखबारात पत्रिका मैगजीन अध्यनन किया जाये तो सच्चाई स्पष्ट हो जायेगी । तर्जुमान ( पत्रिका ) हर संस्करण में इस्लाम , कुरआन और हिन्दुस्तानी मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलना और उनकी तारीख़ को तोड़ मरोड़ कर पेश करना अपना फ़र्ज़ समझते हैं । 

हिन्दुस्तान मुसलमानों के लिये नया देश नहीं । सदियों से वह यहां ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं क़ुरआन हिन्दुस्तान के लिये कोई नई किताब नहीं ।

 सदियों से इसका पैगाम यहां गूंज रहा है । और करोड़ों मुसलमानों के सीनों में यह कुरआन सुरक्षित है । हज़ारों हाफ़िज़े कुरआन , हज़ारों उल्मा , और हज़ारों नमाज़ी दिन व रात इसका पाठ करके अपनी रूहानी गिजा हासिल करते हैं । 

यह क़ुरआन न हिन्दुस्तानी है न एशियन या अफ्रीकन , या अमरीकन है , यह इंसानी नहीं बल्कि रब्बानी ( अल्लाह का ) कलाम है । 

इसके ख़िलाफ़ कोई भी आपत्ति व आलोचना न कल इसका कुछ बिगाड़ सकी न आज इसे मामूली ध्यान योग्य समझा जा रहा है और न कयामत तक इसे क़ुरआन तक पहुंचने की कोई राह मिल पायेगी । 

यह एक अटल सत्य है । और यही बात अल्लाह की इच्छा और हुक्म के मुताबिक है । परंपरा के तौर पर मुस्लिम और गैर मुस्लिम सारे हिन्दुस्तानी निवासी परस्पर शांत जीवन के पाबंद हैं । आज की दुनिया अंतर्राष्ट्रीय नियम के गिर्द अपनी सरगर्मियां जारी रख सकती है ।

 राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन हर एक के लिये नुक्सानदेह है । वादा ख़िलाफ़ी और विश्वासघात मुसलमानों के लिये मज़हबी तौर पर नाजायज़ व हराम है ।

 शांति भंग करना और देश के कानून की खिलाफ़वर्जी का जुर्म सामूहिक रूप से वह न करते हैं और न ही इसे पसंद करते हैं ।

लिखने में कोई ग़लत शब्द लिखा गया हो तो माफ़ करें मोबाइल से लिखते समय उंगली इधर उधर टच हो जाता है और ध्यान नहीं जाता है या किसी के दिल को ठेस पहुंची हो तो माफ़ करें।

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